संत कवि कबीर

बारह शिष्यों में बिरले थे कबीर

अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'
1398-1518

जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार का, पड़ी रेहन जो म्यान। -कबी र
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रामानंद के बारह शिष्यों में कबीर बिरले थे। उन्होंने गुरु से दीक्षा लेकर अपना मार्ग अलग ही बनाया और संतों में वे शिरोमणि हो गए। कुछ लोग कबीर को गोरखनाथ की परम्परा का मानते हैं, जबकि उनके गुरु रामानंद वैष्णव धारा से थे। लेकिन कबीर साहिब ने धर्मों के पाखंड पर प्रहार कर तात्कालिक राजा और हिंदू तथा मुसलमानों के धर्माचार्यों को क्रुद्ध कर दिया था, परंतु रामानंद के कारण उन पर सीधे वार करने से सभी डरते थे।

कुछ लोगों का मानना है कि वे जन्म से मुसलमान थे और युवावस्था में स्वामी रामानंद के माध्यम से उन्हें हिंदू धर्म की बातें मालूम हुईं और रामानंद ने चेताया तो उनके मन में वैराग्य भाव उत्पन्न हो गया और उन्होंने उनसे दीक्षा ले ली। कबीर ने हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए कार्य किया। उनकी खरी, सच्ची वाणी और सहजता के कारण दोनों ही धर्म के लोग उनसे प्रेम करने लगे थे।

जन्म : कबीर के जन्म के संबंध में भी मतभेद हैं। 'कबीर कसौटी' में उनका जन्म विक्रम संवत्‌ 1455 (सन् 1398 ई.) की ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा को काशी में हुआ माना गया है।

रामानंद के समय बादशाह गयासुद्दीन तुगलक और कबीर के समय लोदी वंश का सुल्तान सिकंदर शाह था, इससे अनुमान लगाया जाता है कि उनका जन्म 1398 में ही हुआ होगा। कबीर का पालन-पोषण नीमा और नीरू ने किया जो जाति से जुलाहे थे तब कबीर ने स्वयं को भी जुलाहा बताया। ये नीमा और नीरू उनके माता-पिता थे या नहीं इस संबंध में मतभेद हैं।

  कबीर की वाणी को हिंदी साहित्य में बहुत ही सम्मान के साथ रखा जाता है। दूसरी ओर गुरुग्रंथ साहिब में भी कबीर की वाणी को शामिल किया गया है। कबीर की वाणी का संग्रह 'बीजक' नाम से है जिसके तीन भाग हैं:- रमैनी, शबद, सारवी।      
कबीर का विवाह बैरागी समाज की लोई के साथ हुआ जिससे उन्हें दो संतानें हुईं। लड़के का नाम कमाल और लड़की का नाम कमाली था।

कबीर की वाणी : कबीर की वाणी को हिंदी साहित्य में बहुत ही सम्मान के साथ रखा जाता है। दूसरी ओर गुरुग्रंथ साहिब में भी कबीर की वाणी को शामिल किया गया है। कबीर की वाणी का संग्रह 'बीजक' नाम से है जिसके तीन भाग हैं:- रमैनी, शबद, सारवी। यह पंजाबी, राजस्थानी, खड़ी बोली, अवधी, ब्रज भाषा आदि कई भाषाओं की खिचड़ी जैसा है।

मृत्यु : कबीर ने काशी के पास मगहर में देह त्याग दी। ऐसी मान्यता है कि मृत्यु के बाद उनके शव को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया था। हिन्दू कहते थे कि उनका अंतिम संस्कार हिन्दू रीति से होना चाहिए और मुस्लिम कहते थे कि मुस्लिम रीति से।

इसी विवाद के चलते जब उनके शव पर से चादर हट गई, तब लोगों ने वहाँ फूलों का ढेर पड़ा देखा। बाद में वहाँ से आधे फूल हिन्दुओं ने ले लिए और आधे मुसलमानों ने। मुसलमानों ने मुस्लिम रीति से और हिंदुओं ने हिंदू रीति से उन फूलों का अंतिम संस्कार किया।

मगहर में कबीर की समाधि है। जन्म की भाँति इनकी मृत्यु तिथि एवं घटना को लेकर भी मतभेद हैं किन्तु अधिकतर विद्वान उनकी मृत्यु संवत् 1575 विक्रमी (सन् 1518 ई.) मानते हैं, लेकिन बाद के कुछ इतिहासकार उनकी मृत्यु 1448 में हुई मानते हैं।

चलती चक्की देखकर दिया कबीरा रोए।
दुई पाटन के बीच में साबुत बचा न कोए।।

संत कबीर : मस्तमौला फकीर
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