धर्म में भक्ति का महत्व

भक्ति सूत्र पर प्रवचन

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- आचार्य भगवती प्रसाद जखमोला
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भक्ति स्वयं फलरूपा है। फल वह कहलाता है जिसे जानकर हम छोड़ना न चाहें- अवगतं तत्‌ आत्मैवेष्यते। आम का फल मीठा है, स्वादिष्ट है, यह जान लें तो उसे खाना चाहेंगे। जिसको सुखरूप जानेंगे उसे अपने पास अपने भीतर रखना चाहेंगे। भक्ति फलरूपा है। घर में कुछ वस्तुएं प्रयोजन के कारण रखी जाती हैं।

यह पता लग जाए कि घर में सर्प है तो लाठी लाएं। पता लगा कि सर्प घर से निकल गया तो लाठी फेंक दी। इसी प्रकार आचरण की शुद्धि के लिए धर्म तथा विक्षेप को निवृत्ति के लिए योग आता है। ज्ञान, अज्ञान की निवृत्ति के लिए आता है। ये धर्म, योग, ज्ञान ऐसे हैं जैसे रोगी को निवृत्ति के लिए औषधि होती है। रोग नहीं रहा तो औषधि फेंक दी किंतु भक्ति तो तृप्तिरूपा है।

प्रीति शब्द का अर्थ ही है तृप्ति। प्रीत तर्पण से ही प्रीति शब्द बना है। हम जीवनभर तृप्ति को धारण करना चाहते हैं। प्रीति+सेवा है भक्ति। सेवा में प्रीति हो तब वह भक्ति होती है। बिना प्रीति की सेवा भक्ति नहीं है। इसी प्रकार निष्क्रिय प्रीति भी भक्ति नहीं है। सेवा कर कुछ और चाहना भक्ति नहीं होती।

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जैसे ईमानदार नौकर सेवा तो ईमानदारी से करता है किंतु वेतन चाहता है। वेतन से अपने स्त्री-पुरुष का पालन करता है। उसकी प्रीति तो स्त्री और पुत्र में है। इसी प्रकार जो भजन कर कुछ और चाहते हैं वे प्रीति तो चाही वस्तु से करते हैं। वे भक्त नहीं हैं।

दर्शन देकर भगवान सदा तो साथ रहेंगे नहीं। दर्शन एक काल में होता है, एक काल में नहीं होता। उसमें संयोग वियोग का क्रम बना रहता है किंतु प्रेम सदा रहता है। वह संयोग में भी रहता है ओर वियोग में भी। श्रीचैतन्य संप्रदाय में मानते हैं कि प्रेम रस का ही समुद्र है। उसमें श्रीराधा तथा श्रीकृष्ण के जो आकार हैं ये तरंगे हैं। ये स्थिररूप नहीं हैं। ये तरंगायित रूप हैं।

एक तरंग श्रीकृष्ण रूप में और एक श्रीराधारूप में उठती है। दोनों मिलती हैं और फिर लीन होती हैं। कभी श्रीकृष्ण राधा हो जाते हैं और कभी श्रीराधा कृष्ण हो जाती हैं। श्रीराधा वल्लभ संप्रदाय में कहते हैं हिततत्व है। उसकी गोद में श्रीराधा कृष्ण युगल क्रीड़ा करते हैं। प्रत्येक क्षण वे परस्पर परिवर्तित होते रहते हैं। उनका मिलन नित्य नूतन है।

' लाल प्रिया से भई न चिन्हारी' अनंत अनंत युग से लीलाविहार कर रहे हैं किंतु दोनों में परिचय ही नहीं हुआ। जब दोनों एक-दूसरे के भाव में विस्मृत हो जाते हैं तब दोनों का जो सुखात्मक बोध है वही हिततत्व है। यह भक्ति फलरूपा है, आनंदरूपा है, स्वयं प्रकाश है। बहुत थोड़े लोग जानते हैं कि भक्ति साधन ही नहीं है, वही फल भी है। भक्ति साधन है, यह तो जब जानते हैं किंतु गोस्वामी तुलसीदास जी ने स्थान-पर भक्ति को फल बतलाया है-

' सब कर मांगहिं एक फल, राम चरन रति होउ।
अरथ न धरम न काम रुचि, गति न चहौं निरबान।
जनम जनम रति राम पद, यह बरदान न आन।'

जीव के लिए परम रस, परम कल्याण भगवान की भक्ति ही है। भक्ति में ही जीव का परम स्वार्थ एवं परमार्थ

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