सृष्टि क्रम में संतानोत्पत्ति की व्यवस्था रखी गई है। इस संतानोत्पत्ति का रहस्य क्या है?
यह संसार प्रभु ने केवल खेल के लिए नहीं बनाया। इस संसार में ईश्वर, जीव और प्रकृति तीन सत्ताएं हैं। इनमें ईश्वर तो सबका अधिष्ठाता, सर्वज्ञ, सर्वशक्ति संपन्न है, अतः पूर्ण होने से वह दोषरहित है, पूर्ण विकसित है, परंतु जीवात्मा सदोष है, अवनत भी है, अल्पज्ञ है और उसे विकास की दिशा में चलना है। वास्तव में जीव स्वतंत्र है और उसकी आवश्यकताएं भी हैं।
परमेश्वर पूर्णकाम है, जीव पूर्णकाम नहीं है, उसे पूर्ण कामता या सुख या आनंद की आवश्यकता है। यह सृष्टि प्रभु ने जीव के विकास के लिए ही बनाई है।
इस विषय को हम इस प्रकार समझ सकते हैं कि दो तरह के जीव हैं एक मनुष्य और दूसरे अन्य सभी प्रकार के जीव। मनुष्य के अतिरिक्त सभी प्राणी भोगयोनि के प्राणी हैं अर्थात् उनमें बुद्धि इतनी कम है कि उसके आचार की व्यवस्था ईश्वर ने अपने साथ में रखी है। इसका तात्पर्य यह है कि जीवों के जैसे भोग होते हैं उनके अनुसार उन्हें कर्म करने पड़ते हैं। 'कर्म का भोग, भोग का कर्म, यही जड़-चेतन का आधार।'