धर्म करता है धन्य : आचार्यश्री

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अब समय बदल गया है। एक माँ अपने दस पुत्रों का पालन कर लेती है यहाँ तक कि उनके जूठे बर्तन भी साफ कर लेती है परन्तु दस पुत्र मिलकर भी एक माँ की सेवा नहीं कर पाते, उसके लिए नौकर लगा देते हैं। संसार में सबसे श्रेष्ठ है तो वह धर्म है, जिसे गरीब-अमीर सभी धारण करते हैं।

उक्त प्रेरक विचार आचार्य विशुद्घसागरजी महाराज ने व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि जैसे सूर्य की किरणें महल और कुटिया में रहने वाले सभी को समान रूप से मिलती है वैसे ही धर्म है। जो इसे धारण करता है वह अवश्य ही सुखी होता है। इसी प्रकार धन से व्यक्ति धन्य नहीं होता धर्म से धन्य होता है।

स्वर्ण तभी चमक पाता है जब वह अग्नि में तपता है फिर कुटता है तब कहीं चमक पाता है। वैसे ही साधक जो उपसर्ग परिषहों को सहन करते हुए अपनी साधना में दृढ़ रहते हैं और देह को न देखकर आत्मा की ओर लक्ष्य रखते हैं, वे ही जगत के शीश सिद्घालय में विराजकर चमकते हैं।

यह पंचम काल है यहाँ दीप कम जलते हैं, तूफान बहुत चलते हैं। अपनी श्रद्घा को सुरक्षित रखना, धर्म-धर्मात्माओं में वात्सल्य रखना तभी धर्म संस्कृति सुरक्षित रहेगी। वे धन्य हैं जो इस काल में भी भगवान के चरणों में माथा टेकते हैं।

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