परमात्मा सर्वव्यापक है

परमात्मा की प्राप्ति संभव

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- गोविन्द बल्लभ जोश ी
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' कस्तरति कस्तरति मायां?
यः संगांस्त्यजति, यो महानुभावं सेवते, निर्ममो भवति'

नारद भक्ति के इस सूत्र की व्याख्या करते हुए स्वामी गिरीशानन्द कहते हैं कि जो समस्त सांसारिक आसक्तियों को त्याग कर महापुरुषों की सेवा करता है और भगवद् भक्ति के मार्ग पर निर्मम अर्थात्‌ ममता रहित हो जाता है वही माया के बंधन से मुक्त होकर भगवद् तत्व की प्राप्ति कर लेता है।

स्वामी ने संसार में रहने हुए कैसे बुरी संगति से बचा जा सकता है और किस प्रकार महापुरुषों के संग से ईश्वर भक्ति प्राप्त की जा सकती है, इन बिंदुओं पर बड़ी सहजता से तत्वज्ञान प्रकट किया। उन्होंने कहा अपने अभाव के अधिकरण में जो दिखाई देता है वह मिथ्या है। जैसे किसी रस्सी पर साँप का भ्रम हो जाना, इस मिथ्या ज्ञान का मुख्य कारण माया है।

माया उसे कहते हैं जिसके प्रभाव से, जो नहीं है उसे तो दिखा देती है और जो है उसे छुपा देती है अर्थात्‌ परमात्मा सर्वव्यापक है लेकिन माया के आवरण से परमात्मा की प्रतीति नहीं होती। साथ ही संसार का व्यवहार एवं संबंध अस्थाई होते हुए भी जीवात्मा उसे सत्य समझकर पकड़े रखता है।

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गोस्वामी तुलसीदास इसी बात को रामचरितमानस में लिख गए हैं कि- ' मैं अरु मोर तोर तें माया' संसार में सारे विवादों की जड़ यही है कि मेरा इन वस्तुओं से, इस संपत्ति से, इस पद से और इन रिश्ते-नातों से ही संबंध है और यह तेरा है, तुझसे इनका संबंध है। वास्तविक में देखा जाए तो मनुष्य का यह शरीर भी अपना नहीं है।

उन्होंने कहा भागवत्‌ का पुरंजन, प्रकरण इस बात का संकेत करता है कि ईश्वर ही इस जीव का अविज्ञात सखा है जो विमुखावस्था में भी अपने भक्त का साथ नहीं छोड़ता। भगवान अपने भक्त को हर आपत्ति से बचाते हैं लेकिन यह माया जीव को ईश्वर से हटाकर झूठे संसार को अपना बना देती है और उस सत्य से अलग कर देती है।

सूत्र है कि परिवार एवं संसार में रहने के लिए मनाही नहीं है किंतु संसार में रहते हुए भगवान के बनकर एवं संबंधों के साथ ईश्वरीय संबंध जोड़कर रहोगे तो तभी कल्याण संभव है। इसके लिए बुद्धि द्वारा भक्ति को स्वीकार करने पर भी उसे आचरण में उतारना परम आवश्यक है। अन्यथा माया इतनी प्रबल होती है कि कभी-कभी ज्ञानियों के चित्त का भी हरण कर लेती है।

स्वामी जी कहते हैं ईश्वर की भक्ति प्राप्त हो जाने के बाद भगवान की करूण कृपा स्वयंमेव प्राप्त हो जाती है क्योंकि माया ज्ञानियों को तो घेर सकती है लेकिन भगवद् भक्त को नहीं।

' यः संगान्‌ त्यजति' अर्थात्‌ ऐसे लोगों का संग मत करो जिससे भगवान की भक्ति में बाधा आती हो और ऐसे लोगों का संग करो जो धर्मनिष्ठ सद्गृस्थ और वीतराग परम संत हों। साथ ही इस बात की भी रट न लगाओ कि संसार में बुरे लोगों की संख्या बढ़ रही है, क्योंकि अच्छे लोगों का भी यहाँ अभाव नहीं है। महाभारत का उदाहरण देते हुए वे कहते हैं दुर्योधन के पक्ष में अधिक संख्या थी और युधिष्ठिर के पक्ष में बहुत कम, फिर भी धर्म की ही विजय हुई।

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