समाज में है त्याग की पूजा

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साधना की मान्यता जैन धर्म की अनादिकालीन परम्परा है। समाज त्याग की पूजा करती है। जब साधु त्याग, साधना करता है तो उसकी पूजा आराधना होती है और जब ग्रहस्थ त्याग साधना करता है तो समाज उसका सम्मान अभिवंदन करती है। साधना के सम्मान से ही धर्म की प्रभावना होती है।

यह उद्गार मुनिश्री सौरभ सागर महाराज ने अपने प्रवचनों के दौरान कही। उन्होंने कहा कि वैराग्य उम्र को नहीं देखता जिस प्रकार मृत्यु उम्र को नहीं देखती वह बालक हो या वृद्ध हो, युवा हो या प्रौढ़। वह किसी के पास आने से नहीं हिचकिचाती। उसके आने का कोई समय नहीं है। इसी प्रकास संन्यास के उत्पन्न होने का भी कोई निश्चित समय नहीं है।

बस जहाँ सत्य के प्रति जाग्रत हो जाए प्यास समझो वहीं हो गया संन्यास। जहाँ संसार के स्वरूप का बोध होने लगता है। सांसारिक वस्तुओँ की व्यर्थता का अनुभव होने लगता है तब शरीर को शमशान की राख न बनाकर साधना के माध्यम से जीवन को खराब बनाने का भाव उत्पन्न होने लगता है।
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