गत दिनों जब सर्वोच्च न्यायालय की नौ न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने संविधान की नौवीं अनुसूची की न्यायिक समीक्षा के मामले पर बहस करते हुए अपनी राय कायम की तो एक बार फिर 1973 में केशवानंद भारतीय मामले का ऐतिहासिक निर्णय ताजा हो गया जिसमें मूलभूत अधिकारों की अग्रता को उसके निर्देशात्मक सिद्धांतों के मुकाबले बहाल किया गया था।
हमारे संस्थापकों जो कि ब्रिटिश की राजसी सत्ता के प्राप्ति छोर पर थे तथा स्वतंत्रता संग्राम के दिनों जिन्होंने काफी कुछ झेला थ ा, वह लागू किए जाने वाले मूलभूत अधिकार तथा इसके प्रभावी प्रवर्त न, स्वतंत्र न्यायपालिका के अस्तित्व के बारे में सचेत थे। वे सारे आदर्श, जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम को सींचा थ ा, उसमें मूलभूत अधिकारों के अंश भी भरे हुए थे। संविधान निर्मातागण अमेरिकी संविधान में वर्णित अधिकार विधेयक से प्रभावित थे तथा उन पर मानवाधिकार की सार्वभौमिक घोषणा के समकालीन प्रतिज्ञापन का भी भारी प्रभाव था।
प्रत्येक व्यक्ति को यह सुनिश्चित करने के लिए मूलभूत अधिकार प्रत्याभूत है कि प्रत्येक व्यक्ति की सर्वोच्च धारणा में कतिपय बुनियादी अधिकार अंतर्निहित होते है ं, जिनकी अभिव्यक्ति प्रत्याभूत होनी चाहिए। मूलभूत अधिकार को प्रभावी तथा संस्थापित बनाने के लिए मूलभूत अधिकारों को लागू करने के लिए स्वतंत्र न्यायपालिका का अस्तित्व अनिवार्य है। इसे विचारित करते हुए संविधान निर्माताओं ने संविधान में मूलभूत अधिकारों को प्रत्याभूत किया था। संविधान के इसी भाग में कार्यकारी अथवा संविधान अनुच्छेद 32 में वर्णित विधायिका द्वारा मूलभूत अधिकारों के उल्लंघन के समय न्यायिक समीक्षा भी प्रत्याभूत की गई है। भारतीय संविधान के शिल्पकार डॉ. आम्बेडकर ने संविधान सभा की बहस में यह कहा था कि उनके दिमाग में धारा 32 भारतीय संविधान का सर्वाधिक महत्वपूर्ण हिस्सा है। धारा 32 को अलग कर देने पर सारे मूलभूत अधिकार महज मनोभाव बनकर रह जाएँगे।
जब सर्वोच्च न्यायालय की नौ न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने संविधान की नौवीं अनुसूची की न्यायिक समीक्षा के मामले पर बहस करते हुए अपनी राय कायम की तो एक बार फिर 1973 में केशवानंद भारतीय मामले का ऐतिहासिक निर्णय ताजा हो गया।
संविधान के भाग चार में वर्णित निर्देशात्मक सिद्धांतों पर चर्चा किए बिना मूलभूत अधिकारों पर कोई भी सार्थक बहस पूरी नहीं हो सकेग ी, जबकि मूलभूत अधिकार संविधान का विवेकाधिकार है तथा संविधान के लागू करने लायक निर्देशात्मक सिद्धांत लागू नहीं किए जा सकते है ं, फिर भी वह अधिशासन में भूलभूत हैं। लेकिन किसी अन्य कानून की तरह इन मूलभूत अधिकारों की प्रभावोत्पादकता को केवल तब ही कसौटी पर परखा जाता ह ै, जब उल्लंघन की वास्तविक घटना घटी हो तथा उसे किस तरह से स्वतंत्र न्यायपालिका द्वारा निपटाया गया है।
यह कहा जाना चाहिए कि सामान्यतः तथा सर्वोच्च न्यायालय में भारतीय न्यायप्रणाली ने मूलभूत अधिकारों की व्यापकता की बजाय उसकी व्याख्या की है तथा इसके अंशों को ऊर्जा तथा सार्थकता प्रदान कर रही है। केवल अनुच्छेद 21 को छोड़कर जिसकी 1951 में एके गोपालन प्रकरण में प्रतिबंधात्मक रूप से व्याख्या की गई थी अन्य मूलभूत अधिकार तथा विशेषकर संपत्ति का अधिकार भी जो कि अनुच्छेद 19 (1) (एफ) के अंतर्गत आता ह ै, 1977 में इसके निरसन होने तक व्यापक रूप से व्यापक व्याख्या की गई थी। वास्तव मे ं, सांविधानिक व्याख्या के आरंभिक वर्ष में सर्वोच्च न्यायालय ने यह आदेश दिया था कि निर्देशात्मक सिद्धांतों के मुकाबले मूलभूत अधिकारों ने उच्च दर्जा हासिल किया है।
जब 1980 में सर्वोच्च न्यायालय ने अधिकारिता की अवधारणा को बढ़ाते हुए जनहित याचिका न्यायशास्त्र का शुभारंभ किय ा, उसने मूलभूत अधिकारों को दिशात्मक प्रादृश्य में व्याख्या करना आरंभ कर दी। साथ ही निर्देशात्मक सिद्धांतों में इसकी व्याख्या की गई। यहाँ तक कि अनुच्छेद 21 जिसमें कि प्रतिबंधात्मक व्याख्या की गई तथा जो कि 21 वर्षों से स्थापित थ ा, उसने 1978 में मेनका गाँधी प्रकरण में उद्धारक व्याख्या देखी। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया था कि अभिव्यक्ति स्वतंत्रता के अधिकार को वापस लेने के लिए निर्धारित प्रक्रिया न्यायोचि त, निष्पक्ष तथा यथोचित प्रक्रिया होनी चाहिए।
इसी तरह न्यायालय ने निर्देशात्मक सिद्धांतों के प्रकाश में अनुच्छेद 21 की व्याख्या की तथा न्यायालय प्रक्रिया के माध्यम से अनुच्छेद 21 के अंतर्गत आने वाले कई व्युत्पन्न अधिकारों को समाप्त कर दिया। इस प्रक्रिया को अमेरिकी संवैधानिक न्यायशास्त्र में 'उपच्छायात्मक निर्ण य' कहा जाता है। उपच्छायात्मक निर्णय का सिद्धांत यह कहता है कि प्रत्येक अधिकार का अपना मुख्य केंद्र तथा उपच्छाया होती है तथा उपच्छाया को उद्देश्यात्मक एवं रचनागत व्याख्यात्मक प्रक्रिया द्वारा बढ़ाया जा सकेगा।
इसी तरह अनुच्छेद 14, जो कि मुख्यतः अवसर में समानता तथा भेदभाव के निवारण से संबंधित ह ै, ने 1974 में रायप्पा प्रकरण में सख्त अंश प्रदान किया था। इस प्रकरण में यह निर्णय दिया गया था कि अनुच्छेद 14 भेदभाव तो शापित करने के अलावा निरंकुशता को भी गैरकानूनी निरूपित करता है। इसी तरह अनुच्छेद 30 की व्याख्या भी उदारतापूर्वक की गई ह ै, ताकि अल्पसंख्यकों के लिए व्यवहार में लाए जा रहे प्रत्याभूत अधिकार प्रभावी अधिकार बन जाएँ ।
अधिकारों की व्याख्य ा प्रत्येक व्यक्ति को यह सुनिश्चित करने के लिए मूलभूत अधिकार प्रत्याभूत है कि प्रत्येक व्यक्ति की सर्वोच्च धारणा में कतिपय बुनियादी अधिकार अंतर्निहित होते है ं, जिनकी अभिव्यक्ति प्रत्याभूत होनी चाहिए।