(26-1-58 को डॉ. राजेंद्रप्रसाद द्वारा अपनी पुत्रीतुल्य डॉ. ज्ञानवती दरबार को लिखा गया पत्र)
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प्रिय ज्ञा न,
26 जनवरी एक बार फिर आई और कुछ ही घंटों में वह चली भी जाएगी। मैं इतना विह्वल और गदगद कभी नहीं होत ा, जितना इस दि न, जब मैं परेड की सलामी के लिए राजपथ पर सवारी में जाता हूँ। राजपथ के दोनों ओर लाखों की संख्या में जमा लोगों के चेहरों पर राष्ट्रपति के प्रति जो भाव झलकते है ं, उन्हें देखकर मेरा हृदय भावों से भर जाता है।
आज सुबह सलामी के लिए जाते हुए मेरे हृदय में यही भाव और विचार उमड़ रहे थे और मैं अभिभूत-सा चुपचाप मानो यंत्रवत हाथ जोड़ता हुआ सलामी मंच तक पहुँच गया। अंगरक्षकों की सलामी के बाद पहला कार्यक्रम उन तीन वीरों को (मरणोपरांत) अशोक चक् र, प्रथम श्रेणी पदक देना थ ा, जिन्होंने नगा क्षेत्र में देश की रक्षा के लिए अपनी जान दे दी। जब प्रशस्तियाँ पढ़ी जा रही थी ं, मैं अपने आपको न रोक सका।
हृदय पहले ही भावों से भरा हुआ थ ा, इन वीरों की गाथाएँ सुनकर मैं द्रवित हो गया और मेरी आँखों में आँसू बह निकले। किसी बहाने मैं रुमाल से उन्हें पोंछ डालता। उस वीर पुरुष की विधवा पत्नी और वृद्ध पिता की आँखें गीली देखकर मुझसे रहा न गया और असहाय-सी स्थिति में मेरी सहानुभूति आँसू बनकर उनके आँसुओं से जा मिली।
26 जनवरी एक बार फिर आई और कुछ ही घंटों में वह चली भी जाएगी। मैं इतना विह्वल और गदगद कभी नहीं होता, जितना इस दिन, जब मैं परेड की सलामी के लिए राजपथ पर सवारी में जाता हूँ।
किंतु यह सब कुछ होने के बाद ध्वंसात्मक शस्त्रों का प्रदर्शन हु आ, जिन्हें जुटाने में दूसरे देशों की नकल कर हम भी सतत प्रयत्नशील हैं। साथ ही वे लोग भी सामने आ ए, जिन्हें अपनी जान दे देने और दूसरे की जान ले लेने की खासतौर से ट्रेनिंग दी जा रही है। अपने दिलों और मस्तिष्कों से इस निरर्थक संघर्ष के विचार को निकाल देने का क्या कोई उपाय नहीं ह ै? क्या मानवता इतनी पागल हो गई है कि सुख-समृद्धि को जुटाने के बजाए वह मानवीय बुद्ध ि, ज्ञा न, विज्ञान और तकनीक का उपयोग केवल विनाश और मृत्यु के आवाहन के लिए कर े?
क्या वे लोग जो हताहत हो चुके हैं और जिनका हम सम्मान कर रहे है ं, हमें नैराश्य के ऐसे ही कामों की ओर सदा प्रेरित करते रहेंग े, अथवा क्या वे ऐसे युग के अभ्युदय के लिए जब शांत ि, युद्ध की अपेक्षा अधिक गौरवमय विजय की भागी बनेग ी, प्रकाश पुंज बन हमारा मार्गदर्शन करेंगे। इस विचार से मैं काँप उठता हूँ कि मानव में समझदारी का इतना अभाव है और ऐसी आशा करने में ही कुशल समझता हूँ कि मानव विश्व के सभी प्राणियों में वास्तव में सर्वोत्तम है और 'अशरफुल मखलूका त' की जो उपाधि उसे दी गई ह ै, उसे वह चरितार्थ कर सकेग ा?