नारी के साथ दुर्व्यवहार दुर्गति का कारण

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स्वामी विवेकान ंद ने जब भारतीय नारियों की दुर्दशा और विशेषकर उन दुखद परिस्थितियों की याद आई जिनके कारण उनकी एक बहन आत्महत्या करने को बाध्य हुई थी, तो उनका मन कटुता से भर उठा। बारंबार उनके मन में आता कि हिन्दुओं का अपनी नारी जा‍ति के साथ दुव्यर्वहार ही भारत की दुर्गति का मुख्‍य कारण है। उनके व्याख्यानों से प्राप्त आय का एक अंश वराहनगर के एक हिन्दू विधवाश्रम को भेजा गया। हिन्दू नारी के बौद्धिक पुनरुत्थान के लिए वे पश्चिम से महिला शिक्षिकाएँ भी भेजने पर विचार कर रहे थे।

स्वामी विवेकानंद ने अमेरिकी सभ्यता के मूलभूत तत्वों के प्रति काफी सम्मान व्यक्त किया था। उन्होंने वहाँ की अर्थनीति, औद्योगिक संगठन, जन शिक्षा, संग्रहालय तथा कलाभवनों का अध्ययन किया और उत्साह में भरकर उनके बारे में भारतीय मित्रों को पत्र लिखे। उन्होंने वहाँ के विज्ञान, स्वास्थ्य, संगठन तथा समाज कल्याण के क्षेत्र में हुई प्रगति की विशेष प्रशंसा की। उन्हें लगा कि आत्मा का दिव्यत्व और मानव मात्र का भातृत्व भारत के लिए मात्र किताबी ज्ञान है, जबकि अमेरिका ने उन्हें जीवन में अपना लिया है।

अमेरिका के धनाढ्‍य वर्ग की समाज सेवा के क्षेत्र में उदारता देखकर उन्हें जब भारतवासियों द्वारा अपने जनता की उपेक्षा की याद आई तो उनका मन आक्रोश से भर उठा।

उन्होंने नाराजगीपूर्वक लिखा - पृथ्वी पर दूसरा कोई धर्म नहीं जो हिन्दू धर्म के समान उच्च स्वर में मानवता के गौरव का उपदेश करता हो, और पृथ्वी पर ऐसा भी कोई दूसरा धर्म नहीं जो हिन्दू धर्म के समान गरीबों और नीची जातिवालों का गला ऐसी क्रूरतापूर्वक घोंटता हो। प्रभु ने मुझे दिखा दिया है कि इसमें धर्म का कोई दोष नहीं है, वरन् दोष उनका है जो ढोंगी और दंभी हैं।'

जातिप्रथा के अत्याचारों की याद हो आने पर उनकी भावनाएँ अत्यंत कटु हो उठीं। उन्होंने लिखा - भारत के भाग्य का निपटारा तो उसी दिन हो गया था, जिस दिन उसने म्लेच्छ शब्द का आविष्कार किया और दूसरे लोगों के साथ मिलना-जुलना बंद कर दिया।' न्यूयॉर्क के ट्राम में एक करोड़पति महिला की बगल में बर्तन लिए एक नीग्रो महिला को बैठे देखकर वे अमेरिकी लोगों के लोकतांत्रिक भाव से अत्यंत प्रभावित हुए। वे भारत में जनतांत्रिक आदर्शों पर चलकर 'हिन्दुओं के बीच आपसी सहयोग तथा सद्‍भाव का विकास कर सके।'

जनसाधारण के पुनरुत्थान के लिए वे अपने भारतीय सहयोगियों को लगातार लिखते रहे। 1894 ई. के एक पत्र में उन्होंने लिखा -

निर्धनता, पुरोहिती-प्रपंच तथा सबलों के अत्याचार से पीड़ित, भारत के उन करोड़ों पद‍दलितों के लिए आओ हम सब दिन-रात प्रार्थना करें। मैं धनवान और उच्च वर्गों की अपेक्षा इन पीड़ितों को ही धर्म का उपदेश देना पसंद करता हूँ। मैं न तत्वज्ञानी हूँ, न दार्शनिक हूँ, न सिद्ध पुरुष हूँ। मैं निर्धन हूँ और निर्धनों से प्रेम करता हूँ। बीस करोड़ नर-नारी जो सदा गरीबी और मूर्खता के दलदल में फँसे हैं, उनके लिए किसका हृदय रोता है? उनके उद्धार का क्या उपाय है? किनको उनके दुख से सहानुभूति है? ये ही तुम्हारे ईश्वर हैं -

निरंतर इन्हीं के लिए सोचो, इन्हीं के लिए काम करो, इन्हीं के लिए निरंतर प्रार्थना करो - प्रभु तुम्हारा पथ प्रदर्शन करेंगे। मैं तो उसी को महात्मा कहता हूँ, जिसका हृदय गरीबों के लिए रोता है, अन्यथा वह दुरात्मा है। जब तक करोड़ों लोग भूखे और अशिक्षित रहेंगे, मैं उस प्रत्येक आदमी को विश्वासघाती समझूँगा, जो उन्हीं के खर्च पर शिक्षित होकर भी उन पर तनिक भी ध्यान नहीं देता। मेरे भाइयो, हम लोग गरीब हैं, नगण्य हैं, परंतु हम जैसे लोग ही हमेशा उस परम पुरुष के यंत्र बने हैं।

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