भारत के प्रथम राष्ट्रपति : डॉ. राजेन्द्र प्रसाद

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यह देश के लिए सौभाग्य की बात है कि भारतीय गणतंत्र के प्रथम राष्ट्रपति के रूप में एक ऐसे व्यक्ति को चुना गया, जो भारतीय संस्कृति और उसके आदर्शों की जीवित मूर्ति थे। उनके विचार, व्यवहार और वेशभूषा में भारतीय संस्कृति की अमिट छाप थी। वे प्राचीन ऋषि-मुनियों की तरह तपस्वी और प्रज्ञावान थे।

राजेन्द्र बाबू का जन्म बिहार के जीरादेई नामक गांव में 3 दिसंबर, 1884 को हुआ था। उनके पिता मुंशी महादेव सहाय थे। उनके एक बड़े भाई और तीन बड़ी बहनें थीं। इनके बड़े भाई महेन्द्रप्रसादजी न केवल बड़े भाई थे, बल्कि बाद में वे ही उनके मित्र और पथप्रदर्शक भी बने। उन्होंने राजेन्द्र बाबू को सार्वजनिक नेता बनने की सुविधा देकर, स्वयं उनके परिवार की देखरेख का भार अपने ऊपर ले लिया।

वे ऐसा न करते तो राजेन्द्र बाबू को लोक-सेवा का अवसर न मिलता। बालक राजेन्द्र की शिक्षा घर के शिक्षक से शुरू हुई। एक मौलवी साहब रात को घर पर पढ़ाने आते थे। उनसे पढ़ने के बाद वे छपरा स्कूल में गए। मैट्रिक की परीक्षा में सर्वप्रथम आए। कोलकाता के कॉलेज में दाखिल होने के साथ ही उन्होंने सार्वजनिक कार्यों में दिलचस्पी लेनी शुरू कर दी थी।
यह देश के लिए सौभाग्य की बात है कि भारतीय गणतंत्र के प्रथम राष्ट्रपति के रूप में एक ऐसे व्यक्ति को चुना गया, जो भारतीय संस्कृति और उसके आदर्शों की जीवित मूर्ति थे। उनके विचार, व्यवहार और वेशभूषा में भारतीय संस्कृति की अमिट छाप थी। व


इन दिनों भारत में बंग-भंग के विरुद्ध आंदोलन शुरू हो गया था। 7 अगस्त, 1905 को कोलकाता में एक भारी सभा हुई। जनता ने उसमें बंग-भंग का विरोध किया तथा सदैव स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग करते थे, फिर भी उस दिन उन्होंने दृढ़ प्रण किया कि वे विदेशी वस्तुओं के उपयोग से बचेंगे। सन्‌ 1928 में एक घटना ने सहसा राजेन्द्र बाबू को अंतरराष्ट्रीय प्रसिद्धि दे दी।

उस वर्ष मार्च में उन्हें एक मुकदमे के संबंध में इंग्लैंड जाना पड़ा। इस मुकदमे को उन्होंने काँग्रेस में सम्मिलित होने से पहले लिया था और अब प्रिवी कौंसिल में उसकी अपील के लिए जा रहे थे। इस मुकदमे का अन्त समझौते में कराकर जब आप भारत लौट रहे थे तो ऑस्ट्रेलिया में होने वाली युद्ध विरोधी परिषद में भाग लेने के लिए ठहर गए।

इस परिषद् में राजेन्द्र बाबू ने सत्याग्रह आंदोलन की रूपरेखा पर विवेचनात्मक भाषण दिया। श्रोताओं ने आपके भाषण की बहुत सराहना की। अन्त में परिषद् ने यह निश्चय किया कि इसमें भाग लेने वाला प्रत्येक प्रतिनिधि यूरोप के किसी नगर में जाकर युद्ध-विरोधी विचारों का प्रचार करे। राजेन्द्र बाबू प्राट्ज नाम के शहर में गए।

वहाँ गाँधीजी के एक मित्र और प्रशंसक की अध्यक्षता में संयोजित सभा में जब आप भाषण दे रहे थे, तो कुछ युद्धप्रिय उपद्रवी लोगों ने सभामंच पर हमला कर दिया। सभा भंग करनी पड़ी। इस उपद्रव में राजेन्द्र बाबू घायल हो गए। यूरोप-भर के पत्रों ने इस समाचार को अपने मुखपृष्ठ पर छापा और एक ही दिन में राजेन्द्र बाबू का नाम संसार-भर में प्रसिद्ध हो गया।

उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर ही देश ने नए प्रजातंत्र का सबसे ऊँचा 'राष्ट्रपति' का पद देकर सम्मानित किया। जन्मभर निःस्वार्थ सेवा करने वाले व्यक्ति का ऐसा ही आदर होना चाहिए था। भारतीय संस्कृति के उत्कृष्टतम तत्वों से राजेन्द्र बाबू का व्यक्तित्व बना था। उन्हें सम्मानित करके देश ने भारतीयता को मान लिया।

नए राष्ट्र के निर्माण में राजेन्द्र बानू ने जो मौन बलिदान किए थे, यहाँ उन्हीं का पुरस्कार था कि सन्‌ 1957 में उन्हें पुनः राष्ट्रपति पद के लिए चुना गया। निरंतर दो कार्यकाल तक देश का सर्वोच्च पद संभाले रहने के उपरान्त राजेन्द्र बाबू मई 1962 में कार्यभार से मुक्त हुए। देश की जनता ने उन्हें हार्दिक विदाई दी जो चिरस्मरणीय रहेगी।

राजेन्द्र बाबू ने सदा निर्लेप रहकर देश की सेवा की थी- चाहे काँग्रेस के सभापति रहे हों, चाहे स्वतंत्रता आंदोलन के संचालक रहे हों और चाहे देश के राष्ट्रपति। राजधानी से विदाई के अवसर पर मार्मिक भाषण देते हुए उन्होंने कहा कि न तो उन्हें झोपड़ों से भय है और न महलों ही से मोह है, वे जहाँ भी होंगे देश-सेवा करते रहेंगे। यह उनकी निर्लेपता का ही प्रतीक था कि वे अपने विश्रामकाल में भी देश-सेवा करते रहे।

अपने राष्ट्रपति काल में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने इस अद्वितीय पद के प्रति जो मान्यताएँ एवं परम्पराएँ स्थापित की थीं, वे भारत को आगामी राष्ट्रपतियों के लिए निस्संदेह प्रकाश-स्तंभ एवं प्रेरणास्रोत सिद्ध होंगी। राष्ट्रपति पद से अवकाश पाकर वे पटना के सदाकत आश्रम में चले गए। वहीं 28 फरवरी, सन्‌ 1963 को उनका स्वर्गवास हुआ।
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