बीएनएचएस सर्वेक्षण जांच के आधार पर गौरेया की संख्या 2005 तक 97 प्रतिशत तक घट चुकी है। बढ़ता शहरीकरण, खेतों में कीटनाशकों का अंधाधुंध प्रयोग, बढ़ता प्रदूषण और बड़े स्तर पर गौरेया को मारना जैसे कई कारक हैं जिनसे यह प्राणी आज लुप्त होने के कगार पर है।
आधुनिक युग में पक्के मकान, लुप्त होते बाग-बगीचे, खेतों में कीटनाशकों का अत्यधिक उपयोग तथा भोज्य-पदार्थ स्रोतों की उपलब्धता में कमी प्रमुख कारक हैं जो इनकी घटती संख्या के लिए जिम्मेदार हैं। गौरेया फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों को भी समाप्त करने में सहायक होती है।
डॉ. सालिम अली ने अपनी पुस्तक इंडियन बर्ड्स में गौरैया का वर्णन भगवान की निजी भस्मक मशीन के रूप में किया है जिसकी जगह मानव के आविष्कार से बनी कृत्रिम मशीन नहीं ले सकती है।
यद्यपि अभी पृथ्वी के दो-तिहाई हिस्से की उड़ने वाली प्रजातियों का पता लगाया जाना बाकी है, फिर भी यह बड़ी ही विडंबना है कि जो प्रजाति की बहुलता में यहां थी, वही आज कम होने के कगार पर है।
सरकार ने अप्रैल, 2006 में भारत में बर्ड्स संरक्षण के लिए एक कार्य योजना की घोषणा की थी। चरणबद्ध ढंग से डाइक्लोफेनेक का पशु चिकित्सीय इस्तेमाल पर रोक तथा बर्ड्स के संरक्षण और प्रजनन केंद्र की भी घोषणा की थी पर नतीजा कुछ खास नहीं निकला। शहरों के आसपास देखी जानी वाली गौरेया धीरे-धीरे अब दुर्लभ हो रही हैं।
गौरेया एक बुद्धिमान चिड़िया है, जिसने घोंसला स्थल, भोजन तथा आश्रय परिस्थितियों में अपने को उनके अनुकूल बनाया है। इन्हीं विशेषताओं के कारण विश्व में सबसे ज्यादा पाई जाने वाली चहचहाती चिड़िया बन गई।