प्राय: जब भी हम बुजुर्गों से उनके जमाने की चर्चा करते हैं तो वे अपने जमाने की सस्ती वस्तुओं का हवाला अवश्य देते हैं। सहसा उनके कथन पर नई पीढ़ी को भरोसा ही नहीं हो पाता। हम चर्चा कर रहे हैं 1874 ईं के एक अभिलेख की जिसमें मार्च 1874 में इंदौर नगर में बिकने वाली कुछ वस्तुओं के दाम अंकित किए गए हैं, जो इस प्रकार है-
खाने-पीने की वस्तुएं इतनी सस्ती और सुलभ थीं कि व्यापारी ग्राहकों को अपनी दुकान पर आकर्षित करने के लिए 1 सेर अनाज ज्यादा दिया करते थे। उपभोक्ता के पास जब कुछ पैसा बचता तो वह गहने बनवाने की बात सोचता था। सोने का भाव इंदौर में 1874 में 18 रु. तोला था। अगर सोने के भाव को मानदंड मानें तो आज सोने के भाव में कई गुना वृद्धि हो गई है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि उन दिनों महंगाई बढ़ती ही नहीं थी।
महंगाई कितनी बढ़ती थी यह जानने के लिए हमें और पीछे चलना होगा। 5 जून 1849 ई. को इंदौर बाजार में कुछ वस्तुओं के दाम इस प्रकार थे-
गेहूं 1 रु. का पच्चीस सेर, चना 1 रु. का 26 सेर, घी 15 रु. का 40 सेर। इन मूल्यों की तुलना यदि 1874 के मूल्यों से की जाय तो हम पाते हैं कि 25 वर्षों में इनके दामों में केवल 50 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी। अर्थात् औसतन 2 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से दाम बढ़े थे। (संदर्भ : होलकर सरकार गझैट क्र. 43, दिनांक 9 मार्च 1874, मालवा अखबार 5 जून 1849)
त्योहार
दशहरा, कृष्ण जन्माष्टमी, मोहर्रम, संक्रांति, फाग (होली) और रंगपंचमी सभी त्योहार उत्साह और उल्लास से मनाए जाते थे। संक्रांति पर बड़े लोग भी गिल्ली-डंडा खेलते और बड़ी पतंगों को उड़ाते। साथ ही जमकर पेंच भी लड़ाते। सावन मास में घरों और मंदिरों में बड़ी-बड़ी रंगोलियां सजाई जाती और आसपास के ग्रामीण भागों से इन्हें देखने बड़ी संख्या में लोग आते। बड़ी संख्या में ग्रामीण रातभर गांव में घूमकर इन रंग-बिरंगी रंगोलियों और इन्हें सजाने वाले कलाकारों की कल्पना को निहारते। मोहर्रम के अंतिम दिन ताजियों का बड़ा जुलूस निकलता और इसमें महाराजा शिवाजीराव स्वयं फकीरी मांग कर शामिल होते थे।
दशहरा पर्व पर सबसे अधिक उत्साह रहता था। इस दिन पैदल सैनिक, घुड़सवार, तोप दस्ता, ऊंट दल और सभी फौजियों के प्रदर्शन होते थे। आगे तोपों की टुकड़ी, इनके पीछे पैदल दस्ता और इनके पीछे घुड़सवार फौजी टुकड़ी रहती थी। जूने वाड़े से लेकर जूने मोतीबाग तक इस कारवां की लंबाई रहती थी। राजवाड़े के सामने महाराजा, राज परिवार के पुरुष, बड़े अधिकारी, इनके पीछे हाथियों की कतार और इन सबके पीछे किले तक खड़ी बाकी की फौज की ठाठ के साथ शाही सवारी सीमा उल्लंघन के लिए निकलती थी।
सेना सहित करीब 3 मील लंबी इस शाही सवारी को देखने के लिए घरों के बाहर, मकानों की छतों पर और रास्तों पर लोगों की अपार भीड़ रहती थी। शाही सवारी के दशहरा मैदान पहुंचने के बाद शमी वृक्ष की पूजा और पाड़े की बलि देते ही तोपों की सलामी होती। इसके बाद सभी सोना पत्ती लूट कर घर-घर बड़ों को देकर आशीर्वाद लेने के लिए निकल जाते। इस सवारी को देखने के लिए आस-पास के ग्रामीण भागों के साथ ही दूर-दूर से लोग आते। छावनी और महू से अंगरेज अधिकारी अपने कुटुंबियों के साथ सरकारी हाथियों पर शाही सवारी देखने आते थे।
इंदौर में शिक्षा ग्रहण किए हुए लोग कई बड़े पदों पर रहे। वर्तमान में भी कई पूरे देशभर में फैले हुए हैं और अच्छे पदों पर कार्यरत हैं और ये इस शहर की ख्याति फैला रहे हैं।
प्राकृतिक सौंदर्य से आच्छादित, सर्व साधन संपन्न इस शहर में उत्तम शिक्षण संस्थान, न्याय के मंदिर, भव्य इमारतें, राजवाड़े, नए बसे मोहल्ले, स्वादिष्ट व्यंजन, अन्ना, सूखी और उत्साह बढ़ाने वाली हवा आदि से भरे इस नगर में बसे लोगों को इसका अभिमान होना स्वाभाविक है। ऐसी जगह जिनका बचपन बीता, जवानी व नौकरी-धंधा किया उन्हें और जो यहां से दूर चले गए, लेकिन उनके मन में आज भी इंदौर की यादें बसी हैं। इन लोगों को आज भी अपने इंदौर पर गर्व होता है। इंदौर के इस प्राकृतिक और कृत्रिम सौंदर्य को बढ़ाने की जवाबदारी इस शहर से जुड़े सभी लोगों की है।