महानुभाव पंथ के अनुयायी आजीबा एक तपस्वी योगी थे जिनकी समस्त साधना तुलसाबाई नामक कन्या के रूप में साकार हो उठी थी। अनुपम सौंदर्य व रूप लावण्य में उसका कोई सानी न था। किशोरवय में ही उसका विवाह कर दिया गया था। उसे मांडू में लोग देखकर स्तब्ध रह जाते थे। उसका यौवन व सौंदर्य अपनी चाल चला। शामराव महाडिक ने इस अनोखे हीरे को, मालवा में दैदीप्यमान नक्षत्र की भांति उदित हो रहे यशवंतराव होलकर को सौंपने की ठानी। वह तुलसाबाई को मांडू से महेश्वर ले गया।
यशवंतराव के समक्ष शामराव ने तुलसाबाई के रूप-लावण्य की इतनी अधिक प्रशंसा की कि वह उस पर मुग्ध हो गया। यशवंतराव अपने हरसंभव प्रयास से उसे पत्नी के रूप में पा लेने के लिए लालायित हो उठा। उसने तुलसाबाई के पति को कैद में डाल दिया। कुछ प्रारंभिक विरोध के बाद तुलसाबाई उसके रनिवास की शोभा बन गई। उसका स्वयं का रूप ही उसका सबसे बड़ा शत्रु बन गया था। यशवंतराव ने तुलसाबाई के व्यक्तिगत अनुरोध पर उसके पति को कारावास से मुक्त कर दिया तथा उसे उसकी सुंदर पत्नी के बदले में एक घोड़ा, वस्त्र तथा कुछ द्रव्य देकर दक्षिण भारत भेज दिया। इस प्रकार शक्ति ने सौंदर्य का अपहरण कर लिया।
तुलसाबाई होलकर राजवंश के इतिहास को प्रभावित करने वाली एक ऐसी कड़ी है जिसके आगमन और मृत्यु के साथ इतिहास के दो निर्णायक युग एवं पहलू जुड़े हुए हैं। उसका युग नृशंस हत्याओं एवं षड्यंत्रों से शुरू हुआ और अंत भी ऐसी ही परिणिति के साथ। वह पत्नी, प्रेमिका व संरक्षिका रही, परंतु उसके बाद होलकर राज्य एकाएक बिखर गया। यह इतिहास की विडंबना ही थी कि होलकर राज्य की इतिहास प्रसिद्ध महिलाओं में तुलसाबाई का चरित्र परस्पर विरोधी तत्वों का सम्मिश्रण था।
तुलसाबाई के प्रति यशवंतराव के सहज आकर्षण का तात्पर्य यह नहीं है कि वे मुगल सम्राट जहांगीर की तरह सदैव भोग-विलास में डूबा रहने वाला व्यक्ति हो। उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी के मालवा पर राजनैतिक प्रभुत्व स्थापना हेतु रचे गए कुटिल षड्यंत्रों का न केवल प्रतिकार किया बल्कि उत्तर भारत में आगे बढ़कर फिरंगियों को उनकी भूमि पर ही ललकारा। यह यशवंतराव का दुर्भाग्य ही था कि पंजाब के महाराजा रणजीतसिंह, सिंधिया व भोंसले ने उनकी योजना अनुसार उनका साथ नहीं दिया और ब्रिटिश कूटनीति के सामने वे असफल रहे। मित्रों के विश्वासघात ने उन्हें निराश कर दिया और मजबूरन 1805 में उन्हें अंगरेजों के साथ राजपुरघाट की अपमानजनक संधि कर लेनी पड़ी। ब्रिटिश प्रतिशोध की भावना ने उन्हें दो वर्ष बाद ही विवेक शून्य सा बना दिया। लगभग 5 वर्षों तक अर्द्धविक्षिप्त स्थिति में रहने के बाद अंतत: 28 अक्टूबर 1811 को यशवंतराव की जीवनलीला समाप्त हो गई।
यशवंतराव की पटरानी लाड़ाबाई के साथ ही तुलसाबाई, कृष्णाबाई तथा मीनाबाई उनकी उपपत्नियां थीं। इनमें यशवंतराव के देहावसान के बाद तुलसाबाई सर्वाधिक प्रभावी महिला के रूप में उभरीं। 1807 में जब यशवंतराव की मनःस्थिति बिगड़ी तभी से राज्य का संपूर्ण कारभार बालाराम सेठ द्वारा संचालित किया जाता था किंतु उसके सारे निर्णय सुंदरी तुलसाबाई द्वारा निर्देशित व प्रभावित थे। कहा जाता है कि रूपसी तुलसाबाई की हस्तलिपि भी बहुत सुंदर थी और इसका जादू भी होलकर दरबार पर चलता था। यशवंतराव के देहांत के बाद उन्होंने महाराजा की एक अन्य पत्नी केसरीबाई के बालक को महाराजा मल्हारराव (द्वितीय) के नाम से गादी पर बैठाया और स्वयं उनकी संरक्षिका बन गई।
सुंदर हस्तलिपि वाली इस रूप यौवना में राजकार्य चलाने की भी असाधारण क्षमता थी। तुलसाबाई, बालाराम सेठ के अतिरिक्त अपने विश्वासपात्र दीवान गणपतराव शोचे एवं उनके सहयोगी तात्या जोग की सहायता से शासन संचालित करती थी। स्व. यशवंतराव के मुस्लिम सहयोगी अमीर खां और उसके बहनोई गफूर खां का भी उन्हें सहयोग व समर्थन प्राप्त था।
होलकर दरबार पूर्व से ही अव्यवस्था और अशांति का शिकार था जिसमें धनाभाव ने और वृद्धि कर दी। इन विषम परिस्थितियों में दौलतराव सिंधिया ने भी होलकर के आरक्षित प्रदेशों पर आक्रमण करने प्रारंभ कर दिए। उन्हीं दिनों अमीर खां भी गफूर खां को होलकर दरबार में अपना प्रतिनिधि नियुक्त कर राजपुताने की ओर कूच कर गया। इन परिस्थितियों ने संपूर्ण होलकर राज्य को झकझोरकर रख दिया।
असहाय तुलसाबाई को विपत्तियों ने आ घेरा। यशवंतराव के विश्वासपात्र रहे सैन्य अधिकारी धर्माकुंअर ने विद्रोही रुख अख्तियार करते हुए तुलसाबाई, यशवंतराव व बालक मल्हारराव को कैद कर लिया था। यह सब कुछ यशवंतराव के जीवनकाल में ही घटित हुआ।
इस विपत्ति में फंसी तुलसाबाई ने एक गुप्त संदेश गफूर खां के पास भेजकर उससे सहायता की याचना की। गफूर खां ने महिपतराव के साथ मिलकर तुलसाबाई की रक्षा करने की योजना बनाई किंतु दुर्भाग्यवश धर्मा को इसका पता चल गया। महिपतराव को धर्मा ने मौत के घाट उतार दिया। धर्मा का षड्यंत्र अंततः विफल रहा और रत्तू पाटिल, जो हाउस होल्ड दस्तों का मुखिया था, की सहायता से धर्मा को कैद कर लिया गया। 31 मार्च 1811 को तुलसाबाई के आदेश से राजद्रोही धर्मा को कत्ल करवा दिया गया।
अब बारी थी होलकर राजपरिवार की महिलाओं की। लाड़ाबाई जो यशवंतराव की विवाहित पत्नी थी तथा सवाई मल्हारराव की पत्नी इमाबाई ने तुलसाबाई व बालक मल्हारराव की हत्या करवाने का षड्यंत्र रच डाला और इसमें दौलतराव सिंधिया का संरक्षण व सहयोग चाहा। फिर एक बार तात्या जोग और गफूर खां ने मिलकर इस षड्यंत्र को विफल कर दिया। षड्यंत्र की विफलता के बाद उक्त दोनों षड्यंत्रकारी महिलाओं को गफूर खां द्वारा कत्ल कर दिया गया।
उल्लेखनीय है कि रूपसी तुलसाबाई अभी तक अपनी सौत मीनाबाई के माध्यम से शासन-कार्य संपादित करती थी। महत्वाकांक्षी तुलसाबाई, मीनाबाई के आधिपत्य से भी अपने आपको मुक्त कर लेना चाहती थी। तुलसाबाई ने इस कंटक को भी मिटा देने के लिए अपने विश्वासपात्रों की ओर कुटिल मुस्कान के साथ इशारा किया, फलस्वरूप अप्रैल 1816 में मीनाबाई को भी सदा के लिए संसार से विदा करने के लिए तलवार के एक वार ने उनके सिर को धड़ से अलग कर दिया।
होलकर दरबार में परस्पर संदेह व भय का ऐसा वातावरण निर्मित होता जा रहा था कि कोई भी व्यक्ति अपने मन की बात किसी को बताने में डरने लगा था। ऐसे ही वातावरण में तुलसाबाई व मंत्री बालाराम सेठ के मध्य मनमुटाव हो गया जिसके कारण तुलसाबाई को अल्प वयस्क मल्हारराव के साथ भागकर गंगधार के किले में शरण लेना पड़ी। पठानों के स्वार्थों की रक्षा करने के संदेह में तुलसाबाई ने बालाराम सेठ को गिरफ्तार करवा लिया और उसी दिन आधी रात को तुलसाबाई ने अपने सामने सेठ का तलवार से वध करवा दिया। यह उस अनुपम सौंदर्य का क्रूरतम स्वरूप था जो आधी रात में उभरा था। इस घटना के साक्षी गणपतराव शोचे व भीमराव बुंदेला थे। बुंदेला ने सेठ की लाश को ठिकाने लगवा दिया।
बालाराम सेठ की हत्या के बाद तात्या जोग मराठा दल का नेता बन गया और गफूर खां वाले मुस्लिम दल से उसका विरोध प्रारंभ हो गया। उधर साम्राज्यवादी लार्ड हेस्टिंग्ज ने नई चाल चलते हुए सिंधिया के समान ही होलकर को भी संधि में फांसने का प्रयास किया। दिल्ली के रेजीडेंट मेटकॉफ ने इस आशय का पत्र तुलसाबाई को लिख भेजा। आंतरिक गुटबंदियों व कलह से परेशान तुलसाबाई ने अंगरेजी संरक्षण में जाने के लिए सहमति जता दी।
संकटापन्न पेशवा ने अंगरेजों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। होलकर सेना के अफगानी दस्तों ने लूट का माल पाने व पेशवा द्वारा पुरस्कृत होने की आशा में ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध लड़ने का निश्चय किया। गफूर खां और अमीर खां ने प्रलोभन पाकर अंगरेजों का दामन थाम लिया। इन पठानों के विश्वासघात ने तुलसाबाई की समस्याओं में और वृद्धि कर दी। मौकापरस्त होलकर अधिकारी सक्रिय हो उठे और उन्होंने बालक मल्हारराव, गणपतराव और तुलसाबाई को 19 दिसंबर 1817 को कैद कर लिया।
एक दिन पहले तक सैनिकों को आदेश देने वाली मलिका अचानक सैनिकों का आदेश मानने के लिए बाध्य कर दी गई। भाग्य ने ऐसा पलटा खाया कि तुलसाबाई का सौंदर्य हार गया। होलकर दरबार की कुटिल दलबंदी को कुटिल चालों से कुचलने वाली अब स्वयं उसका शिकार हो गई थी। 20 दिसंबर की वह सर्द रात। सभी सैन्य अधिकारी अपने-अपने तंबुओं में विश्राम कर रहे थे। आधी रात को जब सभी गहरी नींद में थे, तभी तुलसाबाई के तंबू के बाहर कुछ सिपाही आए और उन्होंने आदेशात्मक स्वर में कुछ कहते हुए तंबू में प्रवेश किया।
तुलसाबाई को पालकी में बैठने का हुक्म दिया गया। पालकी के साथ कुछ जल्लाद किस्म के सिपाही अपने हाथों में नंगी तलवारें लिए चलने लगे। उनके मुंह कपड़े से ढंके थे। रात के अंधकार में तुलसाबाई यूं भी उन्हें पहचान न पाई किंतु उसे यह समझते देर न लगी कि अब उसकी जीवनलीला समाप्त होने वाली है। तुलसाबाई ने उनसे सारे गहने व रत्नजड़ित आभूषण लेकर उसकी जान बख्श देने का अनुरोध किया किंतु वे न माने। पालकी को महिदपुर के समीप प्रवाहमान शिप्रा नदी के तट पर ले जाया गया जहां पौ फटते ही उसका सिर धड़ से अलग कर दिया गया तथा रक्तरंजित अवशेष मोक्षदायिनी शिप्रा में प्रवाहित कर दिए गए।
होलकर राज्य को 10 वर्षों तक संचालित करने वाली रूप गर्विता तुलसाबाई की चीख सुनने वाला उस वीराने में कोई न था और न ही उसकी हत्या पर कोई विलाप करने वाला था। गुमनामी से उभरी वह सुंदरी पुनः इतिहास के पन्नों में गुमनामी का शिकार हो गई।