प्राचीन उड़न खटोले : हकीकत या कल्पना?

संदीपसिंह सिसोदिया
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पक्षियों को आसमान में स्वछंद उड़ते देख सदियों से मनुष्य के मन में भी आसमान छूने की तमन्ना रही है। 1903 में राइट बन्धुओं ने किटी हॉक बनाकर इस सपने को सच कर दिखाया पर सवाल यह है कि क्या इससे पहले भी मनुष्य के आसमान में उड़ने की कोई कोशिश सफल हुई है?

पहले परवाज : 1780 में दो फ्रेंच नागरिकों ने पेरिस में हवा से हलके गुब्बारे में हवा में कुछ दूर तक उड़ान भरी थी, पर अब कुछ इतिहासकारों का मानना है कि कई सभ्यताओं ने इससे कहीं पहले उड़ने की तकनीक विकसित कर ली थी। वर्षों की खोज के बाद मिले पुरातात्विक सबूत भी इस ओर इशारा करते हैं।

प्राचीन युग में भी बेबीलोन, मिस्र तथा चीनी सभ्यता में उड़नखटोलों या उड़ने वाले यांत्रिक उपकरणों की कहानियाँ प्रचलित हैं। इन सभ्यताओं के पौराणिक ग्रंथों में पौराणिक नायकों तथा देवताओं के आकाश में उड़ने के कई किस्से मिलते हैं।

भारतीय पौराणिक प्रमाण : भारतीय हिंदू पौराणिक और वैदिक साहित्य में ऐसे कई उल्लेख मिलते हैं जिनमें ऋषि-मुनि तथा देवपुरुष सशरीर अथवा किसी यांत्रिक उपकरण के माध्यम से उड़कर अपनी यात्रा पूरी करते थे।

स्कंद पुराण के खंड तीन अध्याय 23 में उल्लेख मिलता है कि ऋषि कर्दम ने अपनी पत्नी के लिए एक विमान की रचना की थी जिसके द्वारा कहीं भी आया जाया सकता था। उक्त पुराण में विमान की रचना और विमान की सुविधा का वर्णन भी मिलता है।

विद्या वाचस्पति पं. मधुसूदन सरस्वती ने 'इन्द्रविजय' नामक ग्रंथ में ऋग्वेद के छत्तीसवें सूक्त के प्रथम मंत्र का अर्थ लिखा है जिसमें कहा गया है कि ऋभुओं ने तीन पहियों वाला ऐसा रथ बनाया था जो अंतरिक्ष में उड़ सकता था।

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रामायण में भी पुष्पक विमान का उल्लेख मिलता है जिसमें बैठकर रावण सीताजी को हर ले गया था। हनुमान भी सीता की खोज में समुद्र पार लंका में उड़ कर ही पहुँचे थे। राम-रावण युद्ध के बाद श्रीराम ने सीता, लक्ष्मण तथा अन्य लोगों के साथ सुदूर दक्षिण में स्थित लंका से कई हजार किमी दूर उत्तर भारत में अयोध्या तक की दूरी हवाई मार्ग से पुष्पक विमान द्वारा ही तय की थी। पुष्पक विमान रावण ने अपने भाई कुबेर से बलपूर्वक हासिल किया था। रामायण में मेघनाद द्वारा उड़ने वाले रथ का प्रयोग करने का भी उल्लेख मिलता है।

भरद्वाज का वैमानिक शास्त्र : सबसे महत्वपूर्ण है चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में महर्षि भरद्वाज द्वारा लिखित ‘वैमानिक शास्त्र’ जिसमें एक उड़ने वाले यंत्र ‘विमान’ के कई प्रकारों का वर्णन किया गया था तथा हवाई युद्ध के कई नियम व प्रकार बताए गए।

वैमानिक शास्त्र में भरद्वाज मुनि ने विमान की परिभाषा, विमान का चालक जिसे रहस्यज्ञ अधिकारी कहा गया, आकाश मार्ग, वैमानिक के कपड़े, विमान के पुर्जे, ऊर्जा, यंत्र तथा उन्हें बनाने हेतु विभिन्न धातुओं का जैसा वर्णन किया गया है वह आधुनिक युग में विमान निर्माण प्रकिया से काफी मिलता है।

भरद्वाज मुनि ने उनसे पूर्व के विमानशास्त्री आचार्य और उनके ग्रंथों के बारे में भी लिखा है जो निम्नानुसार हैं- 1.नारायण द्वारा रचित विमान चन्द्रिका, 2.शौनक द्वारा रचित व्योमयान तंत्र, 3.गर्ग द्वारा रचित यन्त्रकल्प 4. वायस्पति द्वारा रचित यान बिन्दु, 5.चाक्रायणी द्वारा रचित खेटयान प्रदीपिका और 6. धुण्डीनाथ द्वारा रचित व्योमयानार्क प्रकाश।

वैमानिक शास्त्र में उल्लेखित प्रमुख पौराणिक विमान :
*‘गोधा’ ऐसा विमान था जो अदृश्य हो सकता था। इसके जरिए दुश्मन को पता चले बिना ही उसके क्षेत्र में जाया जा सकता था।
*‘परोक्ष’ दुश्मन के विमान को पंगु कर सकता था। इसकी कल्पना एक मुख्य युद्धक विमान के रूप में की जा सकती है। इसमें ‘प्रलय’ नामक एक शस्त्र भी था जो एक प्रकार की विद्युत ऊर्जा का शस्त्र था, जिससे विमान चालक भयंकर तबाही मचा सकता था।
*‘जलद रूप’ एक ऐसा विमान था जो देखने में बादल की भाँति दिखता था। यह विमान छ्द्मावरण में माहिर होता था।

अन्य ऐतिहासिक साक्ष्य : 1898 में मिस्र के सक्कारा में एक मकबरे से 6 इंच लम्बा लकड़ी का बना ग्लाइडर जैसा दिखने वाला एक मॉडल मिला जो संभवत: 200 ई.पू. में बना था। कई सालों बाद मिस्र के एक वैमानिक विशेषज्ञ डॉ. खलीली मसीहा ने इसका अध्ययन कर बताया कि इसकी बनावट पूरी तरह आजकल के विमानों की तरह है। यहाँ तक कि इसकी टेल भी उतने ही कोण पर बनी है जिस पर वर्तमान ग्लाइडर बहुत कम ऊर्जा में भी उड़ सकता है।

हालाँकि अभी तक मिस्र के किसी भी मकबरे या पिरामिड से किसी विमान के कोई अवशेष या ढाँचा नहीं मिला है, पर एबीडोस के मंदिर पर उत्कीर्ण चित्रों में आजकल के विमानों से मिलती-जुलती आकृतियाँ उकेरी हुई मिली हैं। इसके खोजकर्ता डॉ. रूथ होवर का कहना है कि ‘पूरे मंदिर में ऐसी कई आकृतियाँ देखने को मिलती हैं जिसमें विमानों तथा हवा में उड़ने वाले उपकरणों को प्रदर्शित किया गया है। इनमें से कुछ तो आधुनिक हेलिकॉप्टर तथा जेट से मिलते-जुलते हैं’। इसके अलावा मिस्र की कई लोककथाओं तथा अरब देश की मशहूर कहानी अलिफ-लैला (अरेबियन नाइट्स) में भी उड़ने वाले कालीन का जिक्र मिलता है।

इसी तरह सदियों तक पेरू के धुंधभरे पहाड़ों में छिपी इंका सभ्यता की नाज़्का रेखाएँ तथा आकृतियाँ आज भी अंतरिक्ष से देखी जा सकती हैं। लेटिन अमेरिकी भूमि के समतल और रेतीले पठार पर बनी मीलों लंबी यह रेखाएँ ज्यामिति का एक अनुपम उदाहरण हैं। यहाँ बनी जीव-जंतुओं की 18 विशाल आकृतियाँ भी इतनी कुशलता से बनाई गई हैं कि लगता है मानो किसी विशाल से ब्रश के जरिये अंतरिक्ष से उकेरी गई हों।

आज भी इंका सभ्यता के खंडहरों और पिरामिडों (मिस्र के बाद पिरामिड यहाँ भी मिले हैं) के भित्तिचित्रों में मनुष्यों के पंख दर्शाए गए हैं तथा उड़नतश्तरी और अंतरिक्ष यात्रियों सरीखी पोशाक में लोगों के चित्र बने हैं। इसके अलावा मध्य अमेरिका से मिले पुरातात्विक अवशेषों में धातु की बनी आकृतियाँ बिलकुल आधुनिक विमानों से मिलती हैं। माचू-पिच्चू की धुन्ध भरी पहाड़ियों में रहने वाले कुछ समुदाय वहाँ पाए जाने वाले विशालकाय पक्षी कांडोर को पूजते हैं और इस क्षेत्र में मिले प्राचीन भित्ति चित्रों में लोगों को इसकी पीठ पर बैठ कर उड़ते हुए भी दिखाया गया है।

इन सभी उल्लेखों में मनुष्य द्वारा आकाश में उड़ने की बात इतनी बार बताई गई है, जिससे विश्वास होता है कि कई प्राचीन सभ्यताएँ कोई ऐसी तकनीक का आविष्कार कर चुकी थीं जिनकी सहायता से वे आसानी से आकाश में उड़ सकती थीं। इन सभ्यताओं ने हजारों साल पहले पिरामिड, चीन की दीवार से लेकर झूलते बचीगे जैसे स्थापत्य कला के जो नायाब नमूने बनाए थे उसे देखकर इस बात पर कतई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

लोककथाओं, धार्मिक साहित्य, अभिलेखों, भित्तिचित्रों, प्राचीन वस्तुओं तथा प्राचीन लेखों को इतिहास जानने का एक अत्यंत महत्वपूर्ण व प्रामाणिक जरिया माना जाता है, तो क्या यह संभव नहीं कि प्राचीनकाल में किसी सभ्यता के पास उड़ने की तकनीक रही हो जो कालांतर में कहीं लुप्त हो गई हो।
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