Ireland Cow Killing: यूरोपीय देश आयरलैंड ब्रिटेन का पूर्वी पड़ोसी है। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ऋषि सुनक की तरह ही आयरलैंड के प्रधानमंत्री लेओ वराडकर भी शत प्रतिशत न सही, तब भी 50 प्रतिशत भारतवंशी हैं। उनके देश का मक्खन यूरोप में बहुत प्रसिद्ध है। वहां बड़े गर्व से दावा किया जाता है कि आयरिश गायें दुनिया की सबसे सुखी गायें हैं।
काश! इन गायों को पता होता कि मात्र 70 हज़ार वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल और 51 लाख की जनसंख्या वाले उनके छोटे-से देश के कृषिमंत्री ने उन्हें दुनिया की सबसे दुखियारी गायें बनाने की क्या योजना सोच रखी है।
आयरलैंड की दुविधा : यूरोपीय संघ का सदस्य होने के नाते आयरलैंड को भी जलवायु परिवर्तन की रोकथाम के कतिपय कठोर लक्ष्यों का पालन करना होता है। इसी कारण इस समय आयरलैंड को एक ऐसा निर्णय लेना पड़ रहा है, जिसने वहां की सरकार को गंभीर धर्मसंकट में डाल दिया है। सरकार चाहती है कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। लेकिन, लाठी टूटे बिना सांप मरता दिख नहीं रहा।
इसी असमंजस में पड़े आयरिश कृषिमंत्री चार्ली मकॉनलॉग ने एक ऐसा प्रस्ताव पेश किया है, जिसमें अगले तीन वर्षों तक, हर वर्ष औसतन 65,000 दुधारू गायों की बलि देने का सुझाव दिया गया है। आयरलैंड के दुग्ध उत्पादक किसान इसे पचा नहीं पा रहे हैं। इसलिए नहीं कि गायें उनके लिए भी माता समान हैं या उन्हें अपनी गायों से बहुत लगाव है। नहीं। उनकी आपत्ति इस बात को लेकर है कि उनके किसान संघ से इस बारे में कोई राय-बात नहीं हुई है।
किसान भी असमंजस में : आयरिश दुग्ध उत्पदक किसान संघ के अध्यक्ष पैट मक्कॉरमैक का कहना है कि सरकार और किसानों के बीच बहुत पहले ही इस बारे में बातचीत होनी चाहिए थी। किसानों को होने वाली भावी क्षति की पूर्ति के लिए कोई बजट बनना चाहिए था। एक ऐसी बड़ी योजना वैसे भी केवल स्वैच्छिक सहयोग के द्वारा ही सफल हो सकती है, न कि एकपक्षीय निर्णयों के द्वारा। आयरलैंड के किसान भी मानते हैं कि जलवायु परिवर्तन की रोकथाम उनके लिए भी इतनी महत्वपूर्ण है कि इस दिशा में कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा। वे जानते हैं कि गायों के मल-मूत्र से बनने वाली अमोनिया गैस, कार्बन डाईऑक्साइड से भी 25 गुना अधिक तापमानवर्धक है।
कुछ ही समय पूर्व आयरलैंड के पर्यावरण प्राधिकरण ने सरकार को सचेत किया कि देश जलवायु रक्षा के अपने लक्ष्यों को साध नहीं पाएगा। ऐसा ही एक प्रमुख लक्ष्य है, आयरलैंड के कृषि क्षेत्र की तापमानवर्धक गैसों के उत्सर्जनों में 2030 तक यथासंभव 20 प्रतिशत तक की कटौती। यूरोपीय संघ ने हालांकि अपने सदस्य देशों को लिए जो अलग-अलग उत्सर्जन लक्ष्य रखे हैं, उनके अनुसार आयरलैंड 2005 तक तापमानवर्धक गैसों का जितना उत्सर्जन कर रहा था, उसकी तुलना में 2030 तक उसे 30 प्रतिशत तक की कमी लाना है।
कृषिमंत्री की निष्ठुर योजना : कृषिमंत्री चार्ली मकॉनलॉग शुरू-शुरू में यही सोच रहे थे कि किसानों की ओर से स्वैच्छिक कमी लाने के लिए गाय पालक किसानों के संघ ने जो लक्ष्य निर्धारित किए हैं, उनसे काम चल जाएगा। लेकिन उन्हें अपना विचार बदलना पड़ा। अख़बार 'अयरिश इन्डिपेन्डेन्ट' ने हाल ही में कृषिमंत्री द्वारा तैयार की गई योजना के कुछ प्रमुख अंश प्रकाशित किए हैं। उनसे पता चलता है कि 2023, 2024 और 2025 तक प्रतिवर्ष औसतन क़रीब 65,000 दुधारु गायों को 'बाज़ार से हटाया जाएगा,' यानी इन गायों का अस्तित्व मिटा दिया जाएगा।
दूसरे शब्दों में, जलवायु परिवर्तन की रोकथाम में आयरलैंड के अब तक असफल रहने और भावी लक्ष्यों को पाने में असमर्थ होने का ख़ामिज़ा, लगभग दो लाख गायों को अगले ढाई वर्षों में अपनी जान देकर भुगतना पड़ेगा। जलवायु रक्षा वाला लक्ष्य प्राप्त करने में संभवतः तब भी कमी रह जाएगी, इसलिए 2030 तक 10 प्रतिशत और गायों की, यानी 7,40,000 और गायों की बलि देनी पड़ सकती है।
किसानों के लिए वित्तीय विकल्प : आयरिश कृषि मंत्रालय की एक महिला प्रवक्ता ने 'आयरिश इन्डिपेन्डेन्ट' से कहा कि सरकार किसानों के सामने आकर्षक वित्तीय विकल्प भी प्रस्तुत करेगी। वे यदि कोई दूसरा काम-धंधा शुरू करना चाहते हैं, तो उन्हें उचित सहायता मिलेगी। अख़बार के अनुसार, सरकार मारी गई हर गाय के बदले किसानों को 3000 यूरो (1 यूरो=90 रुपए) या उससे कुछ अधिक भी देगी। इस प्रकार, 2025 तक हर वर्ष 20 करोड़ यूरो किसानों के बीच क्षतिपूर्ति के तौर पर बांटे जाएंगे।
केवल 51 लाख की जनसंख्या वाले छोटे-से आयरलैंड में 70 लाख ढोर-ढांगर रहते हैं। उनमें से 15,50,000 दुधारू गाएं हैं। यूरोपीय संघ में कुल 27 देश हैं। अभी तक किसी और देश के बारे में यह नहीं सुनने में आया है कि जलवायु परिवर्तन बढ़ाने में सहायक होने वाली तपमानवर्धक गैसों के उत्सर्जन को घटाने के लिए वहां गायों की बड़ी संख्या में बलि देने की बात सोची जा रही है।
यूरोपीय शकाहारी बन रहे हैं : यूरोप में लोग इस बात के प्रति सचेत होने और शाकाहार को अपनाने ज़रूर लगे हैं कि जलवायु परिवर्तन को और पृथ्वी पर तापमान बढ़ने को रोकना है, तो मांसाहार से परहेज़ करना पड़ेगा। किंतु भारत, जिसे दुनिया शाकाहारियों का देश मानती और उससे प्रेरणा लिया करती थी, इस बीच 70 प्रतिशत से अधिक मांसाहारी हो चुका है!
भारत में मांसाहार 'प्रतिष्ठा प्रतीक' बन गया है, जबकि पश्चिम के धनीमानी देशों में 'वीगन' (परम शाकाहारी) होना 'प्रतिष्ठा प्रतीक' बनता जा रहा है। लोग मांस तो क्या, दूध-दही जैसी ऐसी हर चीज़ से परहेज़ करने लगे हैं, जो किसी जानवर से प्राप्त होती है। महिलाएं इस पहल में सबसे आगे हैं।
Edited by: Vrijendra Singh Jhala