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एक वायरस भी अल्जाइमर रोग का बन सकता है करण, क्या हैं उपाय

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राम यादव

Alzheimer disease and remedies: अल्त्सहाइमर (भारत में प्रचलित शब्द अल्जाइमर) रोग भूल-भुलक्कड़पन या सठिया जाने की एक ऐसी बीमारी है, जो अधिकतर बड़ी आयु में होती है। इस बीमारी में बढ़ती आयु के साथ मस्तिष्क के तंत्रिका तंत्र (न्यूरॉन) की कोशिकाओं का इस तरह धीरे-धीरे विघटन होने लगता है कि वे अंत में मर जाती हैं। इस बीमारी का कोई अचूक इलाज आज भी उपलब्ध नहीं है। 
 
अल्त्सहाइमर रोग की जर्मनी में सवा सौ वर्ष पूर्व पहली बार डॉक्टरी पहचान होने तक उसे 'भुलक्कड़पन की बीमारी' कहा जाता था। जर्मनी के ही डॉ. आलोइस अल्त्सहाइमर (Alois Alzheimer) वह डॉक्टर थे, जिसने मस्तिष्क में होने वाले परिवर्तनों के आधार पर 1906 में पहली बार इस बीमारी के लक्षणों का वर्णन किया था।
 
आलोइस अल्त्सहाइमर एक न्यूरॉलॉजिस्ट, यानी तंत्रिका तंत्र के विशेषज्ञ थे। 1901 से उस समय 51 वर्ष की एक महिला मरीज़, आगुस्ते डेटर का इलाज़ कर रहे थे। वह महिला बेहद भुलक्कड़ और चिड़चिड़ी थी, अपना नाम तक याद नहीं रख पाती थी। 1906 में उस महिला की मृत्यु हो गई। उसके मस्तिष्क में हुए परिवर्तनों की डॉ. अल्त्सहाइमर द्वारा वर्णित जानकारी भावी शोधकार्यों का आधार बनी। उनका कुलनाम ही इस बीमारी का भी नाम बन गया, हालांकि जर्मन भाषा के उच्चारण नियमों से अपरिचित होने के कारण भारत में उन्हें और उनके नाम वाली बीमारी को 'अल्जाइमर' कहा जाता है, जो सही नहीं है। जर्मन भाषा में 'Z' सदा त्स और 'hei' हाइ होता है।
 
मस्तिष्क सिकुड़ जाता है : अल्त्सहाइमर का मानना था कि आगुस्ते डेटर की मृत्यु बौद्धिक-ह्रास के जीव वैज्ञानिक कारणों से हुई थी। उसकी शव परीक्षा में उन्होंने पाया उसका मस्तिष्क सिकुड़ गया था। मस्तिष्क के तंत्रिका तंत्र की कोशिकिओं के भीतर और कोशिकाओं के बीच भी, प्रोटीन जमा हो गया था। यह खोज, अल्त्सहाइमर रोग संबंधी शोध का आज तक आधार बनी हुई है।
 
अल्त्सहाइमर रोग को ही मनोभ्रंश (डिमेंशिया) का भी सबसे आम रूप माना जाता है। शोधकर्ताओं को हालांकि अब यह संदेह होने लगा है कि एक खास वायरस भी इस बीमारी का कारण हो सकता है। दूसरी ओर, इसे वे भी सुनिश्चित मानते हैं कि प्रभावित लोगों के मस्तिष्क के तंत्रिका तंत्र की कोशिकाओं के बीच कुछ न कुछ प्रोटीन भी जमा होने से इन कोशिकाओं के बीच आपसी संचार बाधित होता है। इसी बाधा के परिणामस्वरूप अल्त्सहाइमर रोग से पीड़ित लोगों को स्मृति और भाषा संबंधी विकारों के साथ-साथ किसी बात का संज्ञान लेने, अपनी मौजूदगी के स्थान और समय को जानने-बूझने तक में भी भारी कठिनाई होने लगती है।
 
सबसे नया शोध-समाचार : अल्त्सहाइमर रोग से संबंधित सबसे नया शोध-समाचार यह है कि अमेरिकी शोधकर्ताओं ने इस बीमारी और एक हर्पीस वायरस (Herpes-Virus) के बीच आश्चर्यजनक संबंध पाया है। उनका कहना है कि अधिकांश लोग अपने बचपन में 'साइटोमेगाली वायरस (सीएमवी)' नाम के एक वायरस के संपर्क में आते हैं, जो एक विश्वव्यापी वायरस है। इस वायरस के संक्रमण से आम तौर पर कोई लक्षण नहीं दिखाई पड़ते, या केवल हल्के बुखार अथवा खांसी जैसे सामान्य लक्षण ही दिखाई पड़ते हैं। लेकिन, कमज़ोर रोग प्रतिरक्षण क्षमता वाले लोगों और नवजात शिशुओं को इस वायरस से ख़तरनाक बीमारियां भी हो सकती हैं। 
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इन अमेरिकी शोधकर्ताओं का कहना है कि प्रारंभिक संक्रमण के बाद, 'सीएमवी' मानव शरीर में निष्क्रिय पड़ा रहता है। इसी कारण 80 वर्ष की आयु तक, दस में से नौ लोगों के रक्त में उससे लड़ चुके एंटीबॉडी का पता लगाया जा सकता है, जिसका अर्थ है कि उनका इस वायरस से संपर्क हुआ है। लेकिन, कुछ मामलों में यह वायरस लंबे समय तक भी शरीर में सक्रिय रहता है और 'वेगस नर्व' (Vagus nerv) के माध्यम से हमारे मस्तिष्क में पहुंच जाता है। वेगस नर्व को हिंदी में अभिवाहिनी तंत्रिका कहा जाता है। यह तंत्रिका हमारे शरीर की ऐसी सबसे लंबी कपाल तंत्रिका है, जो पेट में हमारे पाचनतंत्र सहित शरीर के लगभग हर अंग को हमारे मस्तिष्क से जोड़ती है।  
 
वेगस नर्व का महत्व : अमेरिकी शोधकर्ताओं का कहना है कि वर्षों बाद भी हमारे शरीर में सक्रिय रहने वाला 'सीएमवी', वेगस नर्व के माध्यम से ही, हमारे मस्तिष्क में पहुंच कर उसके स्मृति और सोच-विचार वाले अनुभाग की प्रतिरक्षा प्रणाली को क्षतिग्रस्त करते हुए हमारे दिमाग को अल्त्सहाइमर रोग का शिकार बना सकता है। यह वायरस, मस्तिष्क के सोच-विचार वाले अंग में पहुंचने के बाद वहां 'अमाइलॉइड' और 'ताऊ' कहलाने वाले दो प्रकार के प्रोटीनों के उत्पादन और जमाव को बढ़ावा देता है। जमाव आपस में चिपक जाते हैं और अंततः तंत्रिका कोशिकाओं के मरने का कारण बनते हैं। तंत्रिका कोशिकाओं की संख्या और उनका पारस्परिक संपर्क घटते जाने से रोगी की स्मरणशक्ति और सोच-विचार की क्षमता भी निरंतर घटती जाती है। 
 
अमेरिका की 'एरिजोना स्टेट यूनिवर्सिटी' के बायोमेडिकल वैज्ञानिक और शोधपत्र के मुख्य लेखक, बेन रीडहेड का मानना है कि अल्त्सहाइमर रोग का अब उन्हें एक ऐसा अद्वितीय जैविक उपप्रकार मिल गया है, जो इस बीमारी से पीड़ित 25 से 45 प्रतिशत लोगों को प्रभावित कर सकता है। इसलिए, उनका शोधकार्य अब उन लोगों के समूह पर केंद्रित होगा, जो अपनी आंतों में दीर्घकालिक 'साइटोमेगाली वायरस (सीएमवी)' के संक्रमण का उदाहरण हैं। इसके लिए अब एक ऐसे रक्त-परीक्षण पर काम होगा, जिससे सीधे पेट की आंतों में ही 'सीएमवी' के संक्रमण का पता लग सके। माना जाता है कि पेट की आंतों में 'सीएमवी' संक्रमण से प्रभावित लोगों का एंटीवायरल दवाओं से इलाज करना उन्हें अल्त्सहाइमर से बचाने का एक अच्छा विकल्प बन सकता है। 
 
अल्त्सहाइमर और डिमेंशिया : अल्त्सहाइमर रोग को अक्सर 'अल्त्सहाइमर-डिमेंशिया' भी कहा जाता है, क्योंकि अल्त्सहाइमर को ही डिमेंशिया (मनोभ्रंश) का सबसे आम रूप माना जाता है। दोनों फिलहाल असाध्य दिमागी बीमारियां हैं। मुख्य अंतर यही है कि अल्त्सहाइमर रोग किसी भी आयु में हो सकता है, जबकि लगभग उसी जैसे लक्षणों वाले डिमेंशिया से पीड़ित होने की संभावना 65 साल की आयु के बाद हर साल बढ़ती जाती है।
 
डिमेंशिया को अल्त्सहाइमर की चरम अवस्था कहा जा सकता है। भूलना-बिसरना अपने चरम पर पहुंच जाता है। होश-हवास और बोल-भाषा पर नियंत्रण नहीं रह जाता। बुद्धि मारी जाती है। रोगी की पागलों और विक्षिप्तों जैसी हालत हो जाती है। इसी कारण डिमेंशिया (मनोभ्रंश) एक जटिल और अक्सर घातक बीमारी है, जो प्रभावित लोगों और उनके रिश्तेदारों के जीवन को स्थायी रूप से बदल देती है।
 
कुछ निवारक उपाय : वैज्ञानिक अध्ययनों से पता चलता है कि कुछ निवारक उपाय अल्त्सहाइमर-डिमेंशिया के जोखिमों को कम कर सकते हैं। आनुवंशिक और जैविक कारकों के अलावा, जीवनशैली और पर्यावरण भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। नियमित व्यायाम, शारीरिक गतिविधियां, मस्तिष्क में रक्त प्रवाह सुधारने के अभ्यास, नए कौशल सीखना और सामाजिक संपर्क मस्तिष्क की सक्रियता बनाए रखने में सहायक होते हैं। मछली, जैतून का तेल तथा फलों और सब्जियों से भरपूर संतुलित आहार डिमेंशिया का जोखिम घटा सकता है। 
 
नए अध्ययनों से पता चला है कि तथाकथित 'फ्लेवोनॉइड' वर्ग के दो सामान्य प्रकार के फल स्मरण शक्ति बनाए रखने में सबसे अधिक उपयोगी सिद्ध होते हैं- सेब और जामुन। जामुन जैसे बेरी फल भी लाभदायक हैं। सेब और जामुन में प्राकृतिक फ्लेवोनॉइड होते हैं।
 
 

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