चीन के ग्लोबल टाइम्स ने भारत को आइना दिखाया

Webdunia
मंगलवार, 28 जून 2016 (14:58 IST)
बीजिंग। चीन ने अपने सरकारी दैनिक ग्लोबल टाइम्स में अपने संपादकीय में कहा है कि केवल अमेरिका ही समूची दुनिया नहीं है और मात्र अमेरिका का समर्थन हासिल कर लेने से सारी दुनिया की स्वीकृति नहीं मिल जाती। चीन के सरकारी मीडिया ने एनएसजी में भारत को जगह न मिलने के कारण भारत की तीखी प्रतिक्रिया पर उसने अपना पक्ष रखा है। चीन के सरकारी मीडिया ग्लोबल टाइम्स ने कहा है कि भारत सरकार ने जहां इस मुद्दे पर परिपक्वता, सभ्यता दिखाई है वहीं भारत के मीडिया और लोगों की आलोचना की है।  
 
समाचार के सम्पादकीय में लिखा गया है कि पिछले सप्ताह साउथ कोरिया की राजधानी सोल में न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप (एनएसजी) की समग्र बैठक हुई थी और इसी सप्ताह गुरुवार की शाम को एनएसजी के सदस्य देशों ने विशेष कॉन्फ्रेंस में हिस्सा लिया था।
 
इस कॉन्फ्रेंस में परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) पर हस्ताक्षर करने वाले देशों को एनएसजी में शामिल करने पर विचार हुआ। उसका कहना है कि कम से कम 10 सदस्य देशों ने गैर-एनपीटी देशों को सदस्यता देने का विरोध किया था। ग्लोबल टाइम्स ने लिखा है कि भारत ने एनपीटी पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं लेकिन एनएसजी में शामिल होने के लिए वह सबसे ज्यादा सक्रिय था। 
 
चीन ने इस बात भी नाराजगी का इजहार किया है कि 'भारत के कुछ मीडिया घरानों ने दावा किया कि 48 सदस्यों वाले एनएसजी सदस्यों में से 47 देश भारत के पक्ष में थे जबकि केवल चीन इसका विरोध कर रहा था।' अखबार लिखता है कि '1975 में गठन के बाद से ही यह स्पष्ट है कि सभी सदस्यों का एनपीटी सदस्य होना अनिवार्य है और यह संगठन का पहला सिद्धांत है। अभी तक भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जो एनपीटी पर हस्ताक्षर किए बिना ही एनएसजी सदस्य बनने की कोशिश करता रहा है। यह चीन और अन्य एनएसजी सदस्यों के लिए सिद्धांत की सुरक्षा के ‍ल‍िए भारत का विरोध करना नैतिक रूप से प्रासंगिक था।'
 
अखबार लिखता है कि 'इस मामले में भारतीय जनसामान्य की प्रतिक्रिया बहुत तीखी रही और भारत के कुछ मीडिया घरानों ने चीन को गाली देना शुरू कर‍ दिया। कुछ भारतीयों ने चीन में बने उत्पादों का बहिष्कार करने की भी बात कही। साथ ही, ब्रिक्स ग्रुप से भी भारत के हटने की बात कही गई। भारत को एनएसजी में बिना एनपीटी पर हस्ताक्षर किए बिना ही शामिल होने की ताकत अमेरिकी समर्थन से मिली। वास्तव में, वाशिंगटन और भारत के रिश्तों में चीन को रोकना भी शामिल है। साथ ही, अमेरिका का भारत के साथ नजदीकी बढ़ाने का मुख्य उद्देश्य चीन का सामना करना है।' 
 
अपने पक्ष का औचित्य करते हुए चीनी अखबार ने लिखा है कि 'मात्र अमेरिकी ही पूरी दुनिया नहीं हैं। भारत ने अमेरिकी समर्थन हासिल कर लिया, इसका यह अर्थ नहीं है कि भारत को सारी दुनिया का समर्थन हासिल है। यह ऐसा बुनियादी तथ्य है जिसकी भारत ने पूरी तरह से अनदेखी की। चीन पर भारतीयों द्वारा लगाए जाने आरोपों का कोई अर्थ नहीं है क्योंकि चीनी कदम अंतरराष्ट्रीय मानकों पर आधारित था और भारत की प्रतिक्रिया केवल इसके राष्ट्रीय हित से ही जुड़ी हुई है।'
 
हाल के वर्षों में यह साफ दिखाई दिया है कि पश्चिमी दुनिया के लोग भारत का समर्थन करते रहे हैं और चीन का विरोध। भारत को इन्होंने अपना 'दुलारा' बना लिया है। अमेरिकी समर्थन,  भारत की महत्वाकांक्षाओं को प्रोत्साहन देता है और वाशिंगटन की भारतीय नीति वास्तव में चीन को रोकने का जरिया है लेकिन इस बुनियादी तर्क को भारत ने अनदेखा कर दिया। हालांकि दक्षिण एशियाई देशों की जीडीपी का मात्र 20 फीसदी चीन के पास है लेकिन पश्चिमी देशों की नजरों में यह चुभता है जबकि इन देशों की चीन की तुलना में प्रतियोगी बढ़त और सामर्थ्य बहुत ज्यादा है। 
 
भारत की चापलूसी करके ये देश भारत को अंतरराष्ट्रीय मामलों में काफी हद तक आत्मसंतुष्ट बनाते हैं। सोमवार को एमटीसीआर ने भारत को गुट में शामिल किया और उसने चीन के आवेदन को खारिज कर दिया, लेकिन इस समाचार से चीनी जनता में शोक की लहर नहीं फैली। अंतरराष्ट्रीय संबंधों में इस तरह की असफलताओं का सामना करने के मामले में चीनी अधिक परिपक्व हो चुके हैं। 
 
कुछ भारतीय बहुत अधिक आत्मकेंदितऔर पाखंडी हैं जबकि इसके विपरीत भारत सरकार का व्यवहार सम्मानजनक है और वह सभ्य तरीके से बातचीत के लिए तैयार रहती है। जाहिर है कि अनावश्यक नखरे दिखाना नई दिल्ली के सामने कोई विकल्प नहीं है। भारत के राष्ट्रवादियों को अच्छा व्यवहार करना सीखना चाहिए। अगर वे अपने देश को महाशक्ति बनाना चाहते हैं तो उन्हें महाशक्तियों के खेल की समझ भी रखनी चाहिए।
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