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कौन करेगा पुतिन को गिरफ्तार? ख़याली पुलाव से ज्यादा कुछ नहीं है वारंट...

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राम यादव

नीदरलैंड की राजधानी हेग में स्थित अंतरराष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय (ICC) ने शुक्रवार 17 मार्च को रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की गिरफ्तारी का वारंट जारी कर खलबली मचा दी है। इस वारंट के कारण पुतिन की गिरफ्तारी हो सकना वैसे तो बहुत दूर की कौड़ी है। तब भी प्रश्न उठते हैं कि यह किस प्रकार का न्यायालय है, आरोप क्या हैं और पुतिन की गिरफ्तारी संभव क्यों नहीं लगती।

पुतिन पर युद्ध-अपराध करने का आरोप लगाया गया है। युद्ध-अपराध की परिभाषा 1949 के जेनेवा समझौते और 1998 की रोम संविधि (स्टैट्यूट) में दी गई है : आम नागरिकों व युद्धबंदियों की जानबूझकर हत्या, यातना, शारीरिक अंगभंग, चल-अचल संपत्ति का विनाश, अधियाचन या बड़े पैमाने पर लूट-खसोट तथा लोगों का विस्थापन या बंधक बना लिया जाना युद्ध-अपराध है।

आरोप हेग स्थित अंतरराष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय ने लगाया है। यह एक ऐसा स्थाई अंतरराष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय है, जो संयुक्त राष्ट्र के अधीन नहीं है। इसे 1998 की 'रोम संविधि' (रोम स्टैट्यूट) पर दुनिया के 123 देशों के हस्ताक्षरों के आधार पर बनाया गया है, लेकिन अमेरिका, रूस, चीन, भारत और यूक्रेन सहित जिन देशों ने रोम संविधि को मान्यता नहीं दी है, वे इस न्यायालय का आदेश मानने के लिए बाध्य नहीं हैं।

यूक्रेन ने अपने विरुद्ध रूसी आक्रमण के बाद इस न्यायालय की तदर्थ (एड हॉक) सदस्यता प्राप्त कर ली। इस न्यायालय के मुख्य अभियोजक करीम खान, 2014 से ही यूक्रेन में युद्ध-अपराधों और मानवता के खिलाफ़ अपराधों की जांच-पड़ताल करते रहे हैं।

2 गिरफ्तारी वारंट हैं
न्यायालय ने 2 गिरफ्तारी वारंट जारी किए हैं- एक है राष्ट्रपति पुतिन की गिरफ्तारी का और दूसरा है रूस की बाल-अधिकार आयुक्त मरिया लोवोवा-बेलोवा की गिरफ्तारी का। वारंट का मुख्य आरोप यूक्रेन से बच्चों का अपहरण कर उन्हें रूस ले जाना है, जिसके बारे में कहा जाता है कि वह फरवरी 2022 तक हुआ था।

न्यायालय के अनुसार, इस बात के पर्याप्त कारण हैं कि यूक्रेनी बच्चों को रूस ले जाने के लिए पुतिन खुद आपराधिक रूप से जिम्मेदार हैं। यूक्रेनी बच्चों को तेज़ी से रूस में लाने के एक अध्यादेश पर मई 2022 में उन्होंने हस्ताक्षर किए हैं। गिरफ्तारी वारंट के अनुसार, पुतिन अपने नागरिकों और सैन्य अधीनस्थों को युद्ध-अपराध करने से रोकने में भी विफल रहे हैं।

यह गिरफ्तारी वारंट बाक़ायदा प्रकाशित किया है, क्योंकि अपराध अभी भी जारी हैं। न्यायालय का मानना है कि वारंट के प्रकाशन से भावी अपराधों को रोकने में मदद मिल सकती है। मुख्य अभियोजक, करीम खान मार्च की शुरुआत में स्वयं यूक्रेन गए थे। वहां उन्होंने यूक्रेनी बच्चों को रूस ले जाने की शिकायतों पर विशेष ध्यान दिया था।

गिरफ्तारी वारंट का महत्व
कटु सत्य यह है कि जब तक पुतिन और लोवोवा-बेलोवा रूस में ही हैं, तब तक गिरफ्तारी वारंट का केवल प्रतीकात्मक महत्व है। अंतरराष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय का कोई अधिकारी रूस जाकर दोनों को गिरफ्तार नहीं करेगा। न्यायालय के पास अपनी कोई ऐसी पुलिस या सेना नहीं है कि वह उसे किसी को गिरफ्तार करने के लिए रूस भेज सके।

पुतिन की गिरफ्तारी और उनका प्रत्यर्पण तभी हो सकता है, जब रूस में सत्ता परिवर्तन हो और नए सत्ताधारी उन्हें गिरफ्तार कर उनका प्रत्यर्पण करें। लेकिन रूस क्योंकि 'रोम संविधि' का न तो सदस्य है और न ही इस अंतरराष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय को मान्य करता है, इसलिए निकट भविष्य में पुतिन का बाल बांका होने की कोई संभावना नहीं दिखती। अपनी गिरफ्तारी देने के लिए वे स्वयं हेग तो कभी जाएंगे नहीं।

गिरफ्तारी वारंट का केवल इतना ही प्रभाव हो सकता है कि रूसी राष्ट्रपति उन देशों की यात्रा पर जाने से कतराएं, जो हेग के अंतरराष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय के सदस्य हैं। यदि वे उन देशों की यात्रा करते हैं, जो इस न्यायालय के सदस्य हैं, तो वहां उन्हें गिरफ्तारी का सामना करना पड़ सकता है। तब रूस का राष्ट्रपति होना भी युद्ध अपराधों का आरोपी होने के कारण उन्हें बचा नहीं सकेगा। राष्ट्रपति नहीं रह जाने पर तो वे और अधिक असुरक्षित हो जाएंगे।

हेग में युद्ध अपराध का पहला मुकदमा
किसी देश के राष्ट्रपति को युद्ध-अपराधी घोषित करने की ऐसी नौबत अंतरराष्ट्रीय युद्ध-अपराध कानून के अनुसार,1990 वाले दशक में पहली बार आई थी। उस समय भूतपूर्व यूगोस्लाविया में गृहयुद्ध चल रहा था। स्लोबोदान मिलोशेविच सर्बिया के राष्ट्रपति थे। उन पर वही आरोप लगे थे, जो आज पुतिन पर लगाए जा रहे हैं। अक्टूबर 2000 में अपने विरुद्ध दंगों-प्रदर्शनों के कारण मिलोशेविच को पद त्यागना पड़ा।

नई सरकार ने मुकदमा चलाने के लिए 2001 में उन्हें नीदरलैंड में हेग में ही स्थित संयुक्त राष्ट्र के अंतरराष्ट्रीय युद्ध-अपराध न्यायालय को प्रत्यर्पित कर दिया। किंतु मुकदमे का कोई फ़ैसला आने से पहले ही 11 मार्च 2006 के दिन जेल के उनके कमरे में उन्हें मृत पाया गया।

हेग के अंतरराष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय का रूस क्योंकि सदस्य नहीं है, उसके क़ानून-क़ायदे मानने के लिए बाध्य नहीं है, इसलिए कुछ लोग पुतिन को सज़ा देने के लिए एक अलग विशेष न्यायाधिकरण गठित करने का सुझाव देते हैं, पर इसे भी बहुत व्यावहारिक नहीं माना जाता। तर्क यह दिया जाता है कि वह गिरफ्तारी वारंट, जो हेग के अंतरराष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय ने अब जारी किया है, यह दर्शाता है कि पुतिन की सुनवाई करने और उन्हें सज़ा दिलाने के लिए कोई विशेष क़ानून या न्यायाधिकरण आवश्यक नहीं है। वर्तमान कानूनी स्थिति के अनुसार, युद्ध-अपराध, मानवता के खिलाफ अपराध और नरसंहार के मुकदमे हमारे समय के मान्य क़ानून बदले बिना भी पूरी तरह संभव हैं।

सुरक्षा परिषद में रूसी वीटो का अधिकार भी एक ढाल है
हेग में ही संयुक्त राष्ट्र का भी अपना एक अलग अंतरराष्ट्रीय न्यायालय है। 2022 में वहां एक त्वरित सुनवाई के बाद न्यायाधीशों का फ़ैसला यही था कि रूस ने अंतरराष्ट्रीय क़ानून का घोर उल्लंघन किया है। तब भी इससे रूस या पुतिन का कोई बाल बांका नहीं हुआ, क्योंकि इस न्यायालय के पास भी अपनी बात मनवाने के लिए पुलिस या सेना जैसी कोई शक्ति नहीं है।

उसका फ़ैसला किसी हद तक केवल संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ही मनवा सकती है, लेकिन तब जब उसका कोई स्थाई सदस्य देश अपने वीटो अधिकार का प्रयोग कर तत्संबंधी प्रस्ताव को निरस्त न कर दे। रूस ने अपने वीटो द्वारा अपने विरुद्ध यह अदालती फ़ैसला तुरंत निरस्त कर दिया। रूस सुरक्षा परिषद का शुरू से ही स्थाई सदस्य है। वह ऐसा कोई प्रस्ताव भला क्यों पारित होने देगा, जो उसके विरुद्ध है।

अंतरराष्ट्रीय क़ानून के जर्मन प्रोफ़ेसर, पीएर थीलब्यौएर्गर का कहना है, अंतरराष्ट्रीय क़ानून को लेकर ऊंची अपेक्षाओं का जहां तक प्रश्न है, कि युद्ध का जल्द अंत हो, लोगों को न्याय मिले इत्यादि, तो बार-बार यही कहना पड़ेगा कि अंतरराष्ट्रीय क़ानून देशों के, उनकी सरकारों के बीच सहमति से बना है। वह उतना ही शक्तिशाली हो सकता है, जितना विभिन्न देशों की सरकारें उसे होने देती हैं। अंतरराष्ट्रीय क़ानून वैसा भी हो सकता था, जैसा आम जनता चाहती है। लेकिन फिलहाल वह वैसा है, जैसा देशों की सरकारें चाहती हैं।

हर देश चाहे तो यूक्रेन का साथ दे सकता है। वहां अपनी सेना भेज सकता है। लेकिन देशों की सरकारें ऐसा नहीं चाहतीं। उनके पास अपने-अपने राजनीतिक कारण हैं ऐसा नहीं चाहने के। अंतरराष्ट्रीय क़ानून उनकी राह का रोड़ा नहीं है। अंतरराष्ट्रीय क़ानून न तो राह का रोड़ा है और न न्याय का, तब भी वह सबको न्याय दिला नहीं पाता।
(इस लेख में व्यक्त विचार/ विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/ विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई जिम्मेदारी नहीं लेती है।)

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