वैज्ञानिक इस दिशा में काम कर रहे हैं कि आने वाले समय में मनुष्य बिना भोजन के सूर्य के प्रकाश पर ही जिंदा रह सके। अर्थात बिना कुछ खाए-पिए मनुष्य जिंदा रहे। पढ़िए 'भविष्य की कहानी... क्या मंगल और पृथ्वी के निवासियों के बीच बन पाएंगे यौन संबंध?' की अगली कड़ी...
अंतरिक्ष यात्रियों के लिए शीतनिद्रा : सिनेमा-फ़िल्मों में अंतरिक्ष यात्रियों को कई बार बर्फ की तरह जमा कर सुला दिया जाता है और लक्ष्य पर पुनः जगा दिया जाता है। यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी 'ऐसा' (ESA) की जर्मनी के कोलोन शहर में स्थित मेडिकल प्रयोगशाला में 'स्पेस मीडिसिन' के विशेषज्ञ डॉ. अद्रियोनोस कोलेमिस, लंबी दूरी की अंतरिक्ष यात्राओं के लिए इसी विधि पर काम कर रहे हैं।
कोलेमिस कहते हैं कि मनुष्य यदि अंतरिक्ष में आगे बढ़ना चाहता है, तो क्या यह अच्छी युक्ति नहीं है कि उसे शीतनिद्रा में सुला दिया जाए? सर्दियों में कई जीव-जंतु भी यही करते हैं। शीतनिद्रा से ऊर्जा की बचत होती है और जीवनकाल भी बढ़ता है। लंबी अंतरिक्ष यात्राओं में यात्रियों को शीतनिद्रा में सुला देने से भोजन की ज़रूरत भी कम हो जाएगी।'
शीतनिद्रा में सुला देना एक ऐसी विधि है, जिसे मरणासन्न घायलों की जान बचाने के लिए अमेरिका के मेरिलैंड मेडिकल सेंटर में विकसित किया गया था। ऐसे घायलों को बेहोश कर उनके शरीर का तापमान तेज़ी से घटा देने पर ऑपरेशन आदि के लिए 40- 45 मिनट का अतिरिक्त समय मिल जाता है। शरीर का तापमान 37 से 20 डिग्री पर लाने के लिए, रक्त को साधारण नमक के एक घोल द्वारा विस्थापित किया जाता है। शीतनिद्रा की अवधि को लंबी यात्राओं के लिए बढ़ाया तो जा सकता है, लेकिन तब शरीर की ऑक्सीजन की ज़रूरत को काफ़ी घटाना भी पड़ेगा।
समस्या यह भी है कि लंबी अंतरिक्ष यात्राएं कई महीनों या वर्षों तक चलने वाली यात्राएं होंगी। शीतनिद्रा की अवस्था में शरीर में कैल्शियम की मात्रा और अम्लीयता (एसिडिटी) बढ़ती है और जानलेवा बन सकती है। तब कैल्शियम को घटाना और अम्लीयता को शरीर से बाहर निकालना अनिवार्य हो जाएगा, जो कि संभव नहीं लगता। अतः अंतरिक्ष यात्रियों को गहरी शीतनिद्रा में सुला देना भी कोई सही उपाय नहीं है। अंतरिक्षयान की देखभाल करने और सोने वालों को जगाने के लिए किसी को जागते भी तो रहना चाहिए!
डीएनए में हेरफेर : लंबी अंतरिक्ष यात्राओं को संभव बनाने के लिए 'नासा' के आनुवंशिकी वैज्ञानिक क्रिस्टोफ़र मेज़न के पास एक ऐसा उत्तर है, जो चकित भी करता है और भयभीत भी। उनका कहना है कि मनुष्य के डीएनए में हेरफेर के द्वारा उसे बहुत-सी प्रतिकूल परिस्थितियों के अनुकूल बनाया जा सकता है।
उनकी प्रयोगशाला में मानवीय डीएनए के प्रोटीनों, और 'वॉटर बेअर' कहलाने वाले एक बहुत आम किस्म के सूक्ष्म जीव के डीएनए के प्रोटीनों के चुने हुए हिस्से लेकर, क्लोनिंग द्वरा उनकी हूबहू नकल बनाई गई। नकल को मानवीय कोशिकाओं में प्रतिरोपित किया गया। इस विधि से ब्रह्मांडीय विकरण के प्रति मानवीय जीनों की प्रतिरोध क्षमता 80 प्रतिशत तक बढाई जा सकती है।
'वॉटर बेअर' का जीव वैज्ञानिक नाम फ़ाइलम टार्डिग्राडा है। वह एक मिलीमीटर से भी छोटा, आठ पैरों वाला एक बहुत ही चमत्कारिक जीव हैं। घोर सर्दी हो या गर्मी, हवा और आहार मिले या न मिले, वह कई-कई दशकों तक जीवित रह सकता है। रेडियोधर्मी विकिरण भी उसका बाल बांका नहीं कर पाता। पानी या नमी नहीं मिले, तो वह सूखकर निर्जीव-सा बन जाता है। वर्षों बाद जब भी नमी मिले, पुनर्जीवित हो जाता है।
भारतीय ज्ञान, सूर्य-प्रकाश है आहार : क्रिस्टोफ़र मेज़न ने इस जीन-तकनीक के उदाहरण देते हुए एक टीवी इंटरव्यू में कहा कि लंबी अंतरिक्ष यात्राओं की एक दूसरी बड़ी बाधा है सीमित संसाधन। कैसा रहेगा यदि हम मनुष्य के डीएनए में हेरफेर द्वारा प्रकाश के फ़ोटोन कणों को भोजन में बदलें? मानव-कोशिकाओं को, वनस्पतियों में प्रकाश-संश्लेषण करने वाले क्लोरोफ़ील से लैस कर 'क्लोरोमानव' बनाएं? हम धूप में लेट जाएं और पेट भरने तक लेटे रहें? दिन भर के धूपी-आहर के लिए हमारी त्वचा ही सौर-पैनल होगी!'
याद आती है गुजरात के प्रह्लाद जानी की, जिनके बारे में प्रसिद्ध था कि वे कुछ खाते-पीते नहीं थे, तब भी 90 वर्ष की आयु में, 2020 में इस दुनिया से गए। वे धूप को अपना आहार बताते थे। एक दूसरे भारतीय, हीरा रतन मानेक का भी यही कहना है। उन्हें तो नासा ने 2003 में अमेरिका आने का निमंत्रण भी दिया। डीएनए में हेरफेर से यदि धूप को जैव-ऊर्जा में बदला जा सकता है, तो संभव है कि प्रह्लाद जानी और हीरा रतन मानेक की शारीरिक कोशिकाओं में ऐसे ही डीएनए रहे हों। यानी, आधुनिक विज्ञान भारत के योगियों-ध्यानियों के एक ऐसे ज्ञान को अपना रहा है, जिसे स्वयं भारत में अंधविश्वास माना जाता है।
अगले 500 वर्षों की एक योजना : क्रिस्टोफ़र मेज़न बड़े गर्व से बताते हैं कि उनकी प्रयोगशाला के पास 'सूर्य-प्रकाश से जीने के सपने को साकार करने की अगले 500 वर्षों की एक योजना है।' आनुवंशिकी के क्षेत्र में पिछले 10 वर्षों में हुई भारी प्रगति को वे अब तक का पहला चरण बताते हैं। कहते हैं कि अगले 20 वर्षों वाले दूसरे चरण में मानवीय जीनोम में इस तरह हेरफेर की जाएगी कि वह अन्य जीव-जंतुओं की आनुवंशिक सूचनाओं को भी अपना सकेगा। 500 वर्ष बाद, इस प्रगति के दसवें चरण में, अंतरिक्ष यात्रियों की सुरक्षा इतनी सुनिश्चित हो चुकी होगी कि वे बहुत दूर के उन बाह्यग्रहों की यात्रा पर जा सकेंगे, जहां उन्हें भेजा जाएगा।
प्रश्न उठता है कि आनुवंशिक हेराफारी द्वारा बना मनुष्य संभवतः कई पीढ़ियों तक चलने वाली अंतरिक्ष यात्राओं के लिए शारीरिक दृष्टि से ही फिट होगा या मानसिक दृष्टि से भी? मानव स्वभाव के पारखियों को संदेह है कि ऐसे भावी अंतरिक्ष यात्री, कहीं पहुंचने से पहले ही, आपस में ही लड़-भिड़कर एक-दूसरे का सफ़ाया नहीं कर देंगे। सदा बर्फ से ढके रहने वाले दक्षिणी ध्रुव पर के शोध-शिविरों में आपसी टकरावों की घटनाएं हो चुकी हैं। दो दशक पूर्व मॉस्को में साढ़े तीन माहीने चले एक ऐसे ही प्रयोग में देखा गया कि एक सीमित जगह में रहने के लिए विवश होने पर अपसी टकरावों को टालना बहुत मुश्किल होता है।
अकल्पनीय दूरियां सबसे बड़ी बाधा : कहने की आवश्यकता नहीं कि दूर-दराज़ के बाह्यग्रहों तक पहुंचने की सबसे बड़ी बाधा उनकी अकल्पनीय दूरी, और प्रकाश की गति की तुलना में, आज के रॉकेटों व अंतरिक्ष यानों की कच्छप गति है। इस गति में क्रांतिकारी तेजी लाने के लिए भविष्यशोधी मार्शल सैवेज, आइंस्टाइन की याद दिलाते हुए कहते हैं कि ऊर्जा और पदार्थ एक-दूसरे में परिवर्तनीय हैं। पदार्थ (मैटर) की हर मात्रा में ढेर सारी ऊर्जा छिपी होती है।
पदार्थ को पूरी तरह ऊर्जा में बदलने का एक ही रास्ता है, उसे प्रतिपदार्थ (एन्टी मैटर) से मिलाना। तब पदार्थ और प्रतिपदार्थ एक-दूसरे को तुरंत नष्ट कर देंगे और इससे पैदा होगी विशुद्ध फ़ोटोन-ऊर्जा। यदि प्रतिपदार्थ की एक अच्छी-ख़ासी मात्रा बनाई और संचित की जा सके, तो रॉकेटों व अंतरिक्षयानों के फ़ोटोन-प्रणोदन की लिए पर्याप्त ऊर्जा मिल सकती है। वे प्रकाश जैसी तेज़ गति प्राप्त कर सकते हैं। पर, क्या यह संभव भी है?
स्विट्ज़रलैंड में सेर्न (CERN) की तथाकथित महामशीन प्रयोगशाला में 'प्रोटोन सिंक्लोट्रॉन' कहलाने वाले एक 'पार्टिकल एक्सिलरेटर' की सहायता से प्रतिपदार्थ बनाया और संचित भी किया जाता है। इसके लिए इरीडियम के एक फलक पर अत्यंत गतिवान प्रोटोन-कणों की तीव्र बौछार की जाती है। औसतन 10 लाख प्रोटोन कणों की बौछार से इरीडियम में से एक एन्टी-प्रोटोन टूटकर निकलता है। एन्टी-प्रोटोनों को चुंबकीय बलक्षेत्र वाली एक रिंग में घुमाते हुए उनकी गति इतनी धीमी की जाती है कि उन्हें रोक कर जमा किया जा सके। उन्हें चुंबकीय शक्ति से ही एक निर्वात पाइप में इस तरह बांधे और अधर में लटकाए रखा जाता है कि वे कहीं, किसी भी चीज़ को रत्ती भर भी स्पर्श न कर सकें। बाक़ी सब कुछ निरा पदार्थ है, इसलिए प्रतिपदार्थ के स्पर्श मात्रा से दोनों एक-दूसरे को तुरंत नष्ट कर देंगे।
पदार्थ-प्रतिपदार्थ प्रणोदन अव्यावहारिक : प्रतिपदार्थ बनाना और उसका रखरखाव वास्तव में अत्यंत ख़र्चीला है। बनाने में समय भी बहुत लगता है। प्रतिपदार्थ की एक बहुत ही छोटी-सी मात्रा पाने के लिए भी 120 अरब वॉट बिजली ख़र्च करनी पड़ती है! सेर्न में अब तक जितना प्रतिपदार्थ बनाया जा सका है, उससे एक साधारण बल्ब तक नहीं जल सकता! हिसाब लगाया गया है कि सेर्न को यदि एक ग्राम प्रतिपदार्थ बनाना हो, तो इसमें 10 अरब वर्ष लग जाएंगे! स्पष्ट है कि पदार्थ और प्रतिपदार्थ के मेल से रॉकेटों आदि के लिए फ़ोटोन-ऊर्जा प्राप्त करना कतई व्यावहारिक नहीं है।
तो क्या अपने सौरमंडल से दूर की अल्फ़ा-सेन्टाउरी जैसी अन्य सौर-प्रणालियों के बाह्यग्रहों तक जाना सुनहरा सपना ही बना रहेगा? हां, बशर्ते कि हमारे आकाश में आने और ताक-झांक करने वाले तथाकथित 'एलियन' हमारे ऊपर कभी दया करें और हमें भी अपने साथ ले जाएं। हम देखें कि उनकी दुनिया कैसी है और उनके पास ऐसी कौन-सी प्रौद्योगिकी है, जो हमारे पास नहीं है। वे ही हमें पृथ्वी पर वापस भी लाएं, ताकि हम अपने अनुभव सबको बता सकें।
दूर के ढोल सुहावने : हो सकता है कि एलियन्स के पास हमसे कई गुना बेहतर प्रौद्योगिकी हो। पर क्या उनकी दुनिया हमारी पृथ्वी से भी अधिक अवर्णनीय, विविधतापूर्ण और सुंदर भी होगी? दूर के ढोल सुहावने होते हैं! प्रदूषण से, तापमान बढ़ने से, जलवायु परिवर्तन से और वनों आदि के कटने से पृथ्वी का चेहरा चाहे जितना बदल गया हो; चाहे जितनी जैव-प्रजातियां विलुप्त हो गई हों और भविष्य में भी हमें चाहे जितने बुरे दिन देखने पड़ें, हमारी पृथ्वी अब भी 95 प्रतिशत वैसी ही है, जैसी पहले थी। जो कुछ खो गया है, उसके लिए भी हम ही दोषी हैं।
हम चंद्रमा या मंगल पर मिली पानी की हर बूंद पर ऐसे खुशी मनाते हैं, मानो अमृत मिल गया। हर बाह्यग्रह पर सही तापमान और तरल पानी ढूंढते फिरते हैं। जबकि हमारे महासागर अपार जलराशि से उमड़-घुमड़ रहे हैं। उनके खारे पानी को मीठा बनाकर हम रेगिस्तानों और घटते-सिमटते वनों को अंतहीन हरियाली में बदल सकते हैं। अपनी आदतों, रहन-सहन और औद्योगिक गतिविधियों पर थोड़ी लगाम लगाकर तापमान बढ़ने और जलवायु परिवर्तन पर भी काबू पा सकते हैं। इसके बदले हम मंगल जैसे एक बंजर वीरान ग्रह पर जाने और वहां से किसी बहुत दूर के बाह्यग्रह तक की छलांग लगाने के लिए अधीर हैं। कहीं ऐसा न हो कि 'आधी छोड़ हम पूरी को धाएं, आधी मिलै न पूरी पाएं!' सपने देखना अच्छा है। पर यथार्थवादी होना बेहतर है।