जुमा का बयान

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अल्लाह तआला इरशाद फरमाता है ऐ ईमान वालों जब नमाज़ की अज़ान हो, ज़ुमा के दिन (अज़ान से मुराद अज़ाने अव्वल है न अज़ाने सानी जो खुत्वा से पहले होती है।

अगर चे अज़ाने अव्वल जमाने हज़रत उस्माने गनी रदी अल्लाहो अनहु में इज़ाफा की गई है) तो अल्लाह के ज़िक्र के तरफ दौड़ पड़ो (ज़िक्र उल्लाह से जमहूर के नज़दीक खुतबा मुराद है) और खरीदो फरोख्त छोड़ दो ये तुम्हारे लिए बेहतर है। अगर तुम जानों (क़न्जुल ईमान तर्ज़मा क़ुरआन पारा 28 रुकु 12 सफा 884)

रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे व सल्लम ने फ़रमाया कि जुमा के दिन फ़रिश्ते मस्जिद के दरवाज़े पर खड़े होकर मस्जिद में आने वालों की हाज़री लिखते हैं। जो पहले आते हैं, उनको पहले और जो बाद में आते हैं, उनको बाद में।

जो शख्स जुमा की नमाज़ को पहले गया, उसकी मिसाल उस शख्स की तरह है, जिसने 'मक्का शरीफ़' में क़ुरबानी के लिए ऊँट भेजा, जो दूसरे नंबर पर आया, उसकी मिसाल उस शख्स की तरह है, जिसने गाय भेजी, फिर जो उसके बाद आया, वह उस शख्स की तरह है, जिसने दुम्बह भेजा।

फिर जो इसके बाद आया, वह उस शख्स के तरह है, जिसने मुर्गी भेजी, उसके बाद जो आया वह उस शख्स की तरह है, जिसने अंडा भेजा, जब इमाम खुतबा के लिए उठता है तो फ़रिश्ते अपने क़ागजात लपेट लेते हैं और खुतबा सुनते हैं। (बुखारी शरीफ जि. 1 स. 121 व मुस्लिम शरीफ जि. 1 स. 282)

मसअला- जुमा फरज़े ऐन है, उसका फर्ज होना जौहर से ज्यादा मोअक्क़द है। इसका मुनकिर काफ़िर है। (दुर्रे मुख्तार जि. न 1 स. 553 क़ानून शरीअत स. 110)

मसअला- जुमा वाजिब होने के लिए 11 शर्तें हैं

शहर में मुक़ीम होना- लिहाजा मुसाफ़िर पर जुमा फर्ज़ नहीं

आज़ाद होना- लिहाज़ा ग़ुलाम पर जुमा फ़र्ज़ नहीं

सेहतमंद होना- लिहाज़ा ऐसा मरीज़ जो जामे मस्जिद तक न जा सके उस पर जुमा फ़र्ज़ नहीं

मर्द होना- लिहाज़ा औरत पर जुमा फ़र्ज़ नहीं।

आक़िल होना- लिहाज़ा पाग़ल पर जुमा फ़र्ज़ नहीं

बालिग़ होना- लिहाज़ा बच्चे पर जुमा फ़र्ज़ नहीं

आंखियारा होना- लिहाज़ा अंधे पर जुमा फ़र्ज़ नहीं

चलने की क़ुदरत रखने वाला होना- लिहाज़ा अपाहिज पर जुमा फ़र्ज़ नहीं

आज़ाद होना- लिहाज़ा जेलख़ाने के क़ैदियों पर जुमा फ़र्ज़ नहीं

हाकिम या जालिम का खौफ़ न होना

बारिश या आँधी का इस क़दर ज्यादा न होना, जिससे नुक़सान का पुख्ता यकीन हो। (दुर्रे मुख्तार जि. 1 स. 546)

मसअला- जिन लोगों पर जुमा फर्ज़ नहीं, अगर यह लोग जुमा पढ़े तो हो जाएगा यानी ज़ौहर की नमाज़ उनके जिम्मे से साक़िल हो जाएगी। मगर औरत के लिए ज़ौहर अफ़ज़ल है। (कानूने शरीअत सं. 113)

मसअला- जुमा के लिए छः शर्तें हैं। लिहाजा अगर इनमें से एक भी ना पाई गई तो जुमा होगा ही नहीं

पहली शर्त- शहर या शहरी जरूरियात से ताल्लुक रखने वाली जगह का होना और शरीअत में शहर से मुराद वह आबादी है, जिससे मोताअद्दीद कूचे व बाजार हों, वह जिला या तेहसील हो या ऐसा कस्बा हो कि उसके मुताल्लिक़ देहात गिने जाते हों।

लिहाजा छोटे-छोटे गाँव में जुमा नहीं पढ़ना चाहिए, बल्कि वहाँ जौहर की नमाज़ जमात से पढ़ी जाए, लेकिन जिन गाँवों में पहले से जुमा क़ायम है, वहाँ बंद का हुकुम न दिया जाए। मोजिद्दीदे दीनो मिल्लत इमाम एहमद रज़ा रहमतुल्लाह अलैह ने फ़रमाया कि अवाम जिस तरह से भी अल्लाह व रसूल का नाम ले, ग़नीमत है।

दूसरी शर्त- यह है कि बादशाह इस्लाम या उसका नाइब जुमा क़ायम करे और अगर वहाँ इस्लामी हुकूमत न हो तो सबसे बड़ा सुन्नी सहीहुल अक़िदा अलिमे दीन उस शहर का जुमा क़ायम करे, बगैर उसके इजाज़त के जुमा कायम नहीं हो सकता।

अगर यह भी न हो तो वहाँ के आम मुसलमान जिसको इमाम बनाए, वह जुमा क़ायम करे। हर शख्स को यह हक़ नहीं कि जब चाहे, जहाँ चाहे जुमा क़ायम करें।

तीसरी शर्त- ज़ौहर का वक्त होना लिहाजा वक्त से पहले या बाद में जुमा की नमाज़ पढ़ी गई तो जुमा की नमाज़ न होगी।

चौथी शर्त- ज़ौहर के वक्त ही में नमाज़ से पहले खुतबा का पढ़ना। खुतबा अरबी ज़बान में ही होना चाहिए।

पाँचवीं शर्त- जमाअत है जिसके लिए इमाम के सिवा तीन आक़िल और बालिग़ मर्दों का होना जरूरी है। अगर एक इमाम और दो मुक़तदी हों तो जुमा की नमाज़ नहीं हो सकती।

छठी शर्त- इज़नेआम है, यानी मस्जिद का दरवाज़ा खोल दिया जाए कि जिस मुसलमान का दिल चाहे वहाँ आए, लिहाजा बंद मकान में नमाज़े जुमा नहीं हो सकती।

मसअला- नमाज़े जुमा जामे मस्जिद में अफज़ल है और पाँचों वक्त की नमाज़ अपने महल्ले की मस्जिद में पढ़ना अफज़ल है (फतावा रज़विया जि. 3, स. 749)


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