हजरत हुसैन की शहादत

- अहमद रईस निजामी

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शहादते हुसैन के जिक्र के लिए यूँ तो पूरी किताब लिखी जा सकती है लेकिन संक्षिप्त में महज इतना कहा जा सकता है कि 'शहादते हुसैन'अर्थात करबला जंग राजनीतिक घटनाक्रम का एक महत्वपूर्ण अंग है। पैगंबरे इस्लाम हजरत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इस्लामी स्टेट की स्थापना की थी। आपके बाद उस स्टेट की व्यवस्था अर्थात शासन व्यवस्था इस्लामी विधि अनुसार उन व्यक्तियों के हाथों में सौंपी गई, जिन्हें उस समय के मुसलमानों में से चुना गया था।

शासन व्यवस्था को चलाने के लिए क्रमशः अबूबकर सिद्दीक, हजरत उमर, हजरत उस्मान और उनके बाद हजरत अली विधिवत 'खलीफा' निर्वाचित हुए। हजरत अली के बाद हजरत अमीर मुआविया खलीफा बने और उनके कार्यकाल में किसी कारणवश उनके पुत्र यजीद को मनोनीत कर दिया गया। चूँकि इस्लामी व्यवस्था में मनोनयन नहीं होता इसलिए बहुत से लोगों ने यजीद को स्टेट का सरबराह स्वीकार करने से इन्कार कर दिया और इस एतराज में हजरत हुसैन भी शामिल थे।

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इस पर यजीद के सैनिकों ने हजरत हुसैन पर दबाव डाला कि वे यजीद को इस्लामी स्टेट का सरबराह स्वीकार लें किंतु हजरत हुसैन इसके लिए राजी न हुए। इस पर यजीद के सैनिकों ने मैदाने करबला में हजरत हुसैन व उनके साथियों पर अत्याचार शुरु कर दिए। एक लंबी जंग चली जिसमें हजरत हुसैन, उनके साथी व परिवारजन शहीद हो गए।

मोहर्रम के महीने मे शहादते हुसैन की यादगार प्रति वर्ष यह संदेश देती है कि इंसान को कभी असत्य और झूठ से समझौता नहीं करना चाहिए। सच्चाई का ध्वज फहराते हुए बेशक उसकी जान ही क्यों न चली जाए लेकिन यह दुःखद है कि हजरत हुसैन से मोहब्बत का इजहार करने वाले ही कभी उनकी शहादत से सबक नहीं लेते।

ज्ञात हो कि 19 दिसंबर, शनिवार से से इस्लामी हिजरी सन्‌ 1431 की शुरुआत हो रही है। मोहर्रम इस इस्लामी नव वर्ष का पहला महीना है। इस महीने से वैसे तो अनेक महत्वपूर्ण घटनाएँ संबद्घ हैं लेकिन 'हजरत हुसैन की शहादत' को कुछ इस तरह गलबा (प्रभुत्व) हासिल हुआ कि आज मोहर्रम की पहचान ही शहादते हुसैन से समझी जाती है।

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