गोपाचल से जुड़े प्रमुख पुरुष

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गोपाचल गाथा के साथ यहाँ के प्रमुख पुरुष, मूर्ति निर्माता, प्रतिष्ठाकारक, श्रेष्ठीजन एवं साहित्यकार का संक्षिप्त विवरण, जिन्होंने गोपाचल गौरव बढ़ाया-

संघवी कमलसिंह- इन्हें रइधू ने गोपाचल का तीर्थ निर्माता कहा है। इन्हीं के प्रेरणा से कविवर ने सम्मत गुण णिहार्ण काव्य की रचना की थी। इन्होंने भगवान आदिनाथ की 11 हाथ ऊँची प्रतिमा का निर्माण और प्रतिष्ठा महाराज डूंगरसिंह के राज्यकाल में प्रार्थना करके रइधू से करवाई थी।

खेला ब्रह्मचारी- इनके अनुरोध और भट्टारक यशःकीर्ति के आदेश पर कविवर रइधू ने सम्मइ जिण चरिउ ग्रंथ की रचना की थी। इस ग्रंथ की प्रशस्ति में परिचय दिया है। इन्होंने ग्वालियर दुर्ग में चंद्रप्रभ भगवान की मूर्ति का निर्माण कराया, संघवी कमलसिंह के सहयोग से शिखरवन्द मंदिर का निर्माण और मूर्ति प्रतिष्ठा का कार्य सम्पन्न किया।

संघाधिप नेमदास- इनकी प्रेरणा से रइधू ने पुणासव कहा कोष की रचना की थी। ग्रंथ की प्रशस्ति में परिचय दिया गया है। उन्होंने धातु, पाषाण, विद्रुम और रत्नों की अनेक जिन मूर्तियाँ बनवाईं और विशाल जिनालय में इन्हें प्रतिष्ठित किया। व्यापारिक कार्य से ग्वालियर भी आते-जाते थे और यहाँ संघवी कमलसिंह के माध्यम से कविवर रइधू के संपर्क में आए। कविवर के आदेश या उपदेश से ग्वालियर दुर्ग में मूर्ति प्रतिष्ठा कराई।

संघाधिप कुशराज- ये ग्वालियर के गोलाराडान्वयी खेउ साहू के पुत्र थे। उनकी प्रेरणा से रइधू ने सावय चरिउ ग्रंथ की रचना की थी। इन्होंने महाराजा कीर्तिसिंह के काल में विशाल जिन मंदिर का निर्माण कराया।

कुसुमचंद्र- ये गोलालारे जातीय थे। इन्होंने संवत्‌ 1458 में बावड़ी की और भट्टारक सिंहकीर्ति द्वारा पार्श्वनाथ मूर्ति की प्रतिष्ठा कराई थी।

साहू पद्मसिंह- ये जैसवाल वंश के उल्हा साहू के ज्येष्ठ पुत्र थे। उन्होंने 24 जिनालयों का निर्माण कराया था तथा एक लाख ग्रंथ लिखवाकर साधुओं, श्रावकों एवं मंदिरों को भेंट किए।

मंत्री कुशराज- ये जैसवाल वंश के भूषण थे और महाराजा वीरमदेव के महामंत्री थे। इनके पिता का नाम लोणा था। इनके पांच भ्राता थे। इन्होंने भट्टारक विजयकीर्ति के उपदेश से चंद्रप्रभ भगवान का मंदिर बनवाया था।

संघपति सहदेव- रइधू के सम्मइ जिण चरिउ में साहू सहजपाल के पुत्र संघपति सहदेव के संबंध में लिखा है कि उन्होंने ग्वालियर दुर्ग में मूर्ति प्रतिष्ठा कराई तथा गिरनार की यात्रा का संघ चलाकर उसका संपूर्ण व्यय भार उठाया था।

कविवर परिमल- वरहिया कुलोत्पन्न कुम्हरिया गोत्र के 16-17वीं शताब्दी के कवि थे। इनका जन्म ग्वालियर में हुआ, वृद्धावस्था आगरा में व्यतीत हुई। इन्होंने श्रीपाल चरित की रचना आषाढ़ सुदि अष्टमी संवत्‌ 1651 में प्रारंभ की थी। कवि ने इस रचना में अपना परिचय दिया है।

इनके प्रपितामह चंदन चौधरी ग्वालियर के महाराजा मानसिंह (1480-1516 ई.) द्वारा सम्मानित थे। राजा मानसिंह के उच्चाधिकारी एवं नगर सेठ थे। उनका यश एवं ख्याति सारे देश में व्याप्त थी। उनके पुत्र रामदास चौधरी अपार सम्पत्ति के स्वामी थे। उनके पुत्र आसकरण अपने कुल के दीपक थे। परिमल इन्हीं आसकरण के पुत्र थे।

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