ग्वालियर

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ग्वालियर की प्रसिद्धता यहाँ बने हुए गोपाचल दुर्ग से है। इस दुर्ग के नाम से ही इसका नाम ग्वालियर कहलाया। यह नगर अपनी प्राचीन ऐतिहासिक परम्पराओं, अपने सुहावने दृश्यों और मध्यप्रदेश में एक महान सांस्कृतिक, औद्योगिक और राजनीतिक केंद्र के रूप में अपनी महत्ता के कारण विख्यात है। समुद्र तल से इसकी ऊँचाई 697 फुट है।

इसमें तीन बस्तियाँ (उपनगर) ग्वालियर, मुरार और लश्कर शामिल हैं। ग्वालियर पहाड़ी किले के उत्तर में, लश्कर उपनगर की नींव ईसवी सन्‌ 1810 के पश्चात दौलतराव सिंधिया की फौजी छावनी (लश्कर) के कारण किले के दक्षिण में पड़ी और मुरार जो किले के पूर्व में स्थित है और यह पहले ब्रिटिश छावनी थी।

ग्वालियर भारतवर्ष के मध्य भाग में तथा मध्यप्रदेश के उत्तर-पश्चिम भाग में है। मध्य देश नाम वास्तव में भारत के मध्य भाग मे स्थित होने वाले भू-भाग का सूचक है। इस मध्य देश में उत्तर भारत का वह समस्त मैदान आता है, जो विंध्य पर्वतमाला से निकलने वाली नदियों और उसकी सहायक नदियों का क्षेत्र कहा जाता है।

देश के इस भाग में देश के दक्षिणी भाग की विंध्य पर्वतमाला और सतपुड़ा पहाड़ के बीच का हिस्सा भी आता है। मध्य भारत ही मध्य देश का समवर्ती है। भौगोलिक मध्य भारत की सीमाएँ लगभग वे हैं, जिन्हें प्राचीन परंपरा में मध्यप्रदेश कहा है।

मध्य भारत भारत भूमि का हृदय स्थल है तथा ग्वालियर उस मध्य भाग का पुण्य तीर्थस्थल गढ़ गोपाचल, तीर्थराज की मणिमाला का मणि है। शताब्दियों से यह पुण्यभूमि इतिहास, कला एवं संस्कृति की क्रीड़ा भूमि रही है। ग्वालियर 25 डिग्री-40 डिग्री से 26 डिग्री-21 डिग्री उत्तरी अक्षांश तथा 77-40 डिग्री से 78-40 डिग्री पूर्वी देशांतर के बीच स्थित है। मध्यकाल में ग्वालियर क्षेत्र में ग्वालियर नगर ही प्रसिद्ध स्थान है।

ग्वालियर अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण बहुत ही महत्वपूर्ण नगर है। यह उत्तर-भारत से दक्षिण की ओर जाने वाले मुख्य मार्ग (राष्ट्रीय मार्ग) पर अवस्थित होने के कारण देश की राजनीति उथल-पुथल में अहम भूमिका का निर्वाह करता रहा है क्योंकि उत्तर से दक्षिण की ओर जाने वाले अथवा दक्षिण से उत्तर की ओर जाने वालों का कोई भी अभियान तब तक सफल नहीं हो सकता था, जब तक कि ग्वालियर नगर इसके गढ़ (दुर्ग) पर अपना वर्चस्व स्थापित न करे। इस मार्ग से अनेक वणिकजन, श्रेष्ठी, साधुगण आते-जाते थे।

यद्यपि ग्वालियर नगर पर अनेक राजवंशों का आधिपत्य रहा, परन्तु तोमर काल में इसकी प्रसिद्धि प्रत्येक क्षेत्र में रही। तोमर काल में इसकी राजनीतिक सीमाएँ डॉ. राजाराम ने इस प्रकार बताई हैं- वि.सं. 1481 में राजा डूगरेन्द्र सिंह ने राज्यभार संभाला तब उत्तर से सैयद वंश, दक्षिण में मांडो के सुल्तान तथा पूर्व में जौनपुर के शर्कियों की तलवारें डूगरेन्द्र सिंह से लोहा लेने को तैयार थीं। उनके साथ भयंकर युद्ध हुआ, किन्तु डूंगरसिंह ही विजयी रहा

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