जैन धर्म के सिद्धांत जानिए

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किसी भी कार्य की सफलता तीन बातों पर निर्भर होती है- श्रद्धा, ज्ञान और क्रिया। जैन शास्त्रों में इन्हें सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र कहते हैं ।

1. सम्यक् दर्शन- सच्चे देवशास्त्र-गुरु पर श्रद्धा करना- सम्यक् दर्शन कहलाता है।

सम्यक् दृष्टि वाले मनुष्य पृथ्वी और परलोक के भय, रोक-भय, मरण-भय, चौरासी योनियों के भय, सांसारिक मान-सम्मान आदि के भय से मुक्त होते हैं।


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2. सम्यक् ज्ञान- सच्चे ज्ञान को सम्यक् ज्ञान कहते हैं।
इसके 5 भेद हैं- 1. मतिज्ञान, 2. श्रुतज्ञान, 3. अवधि ज्ञान, 4. मन:पर्याय ज्ञान और 5. कैवल्य ज्ञान।

* इंद्रियों व मन द्वारा जो पदार्थों का बोध होता है, उसे मतिज्ञान कहते हैं।

* मतिज्ञान द्वारा जाने हुए पदार्थों को विशेष रूप से जानना, श्रुतज्ञान कहलाता है।

* द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादा लेकर जो ज्ञानरूपी पदार्थों को जानता है, उस अवधि ज्ञान कहते हैं।

* जो ज्ञान दूसरे के मन के विचारों को जान लेता है, उसे मन:पर्याय ज्ञान कहते हैं।

* जो ज्ञान समस्त द्रव्यों और उनके त्रिकालवर्ती पर्यायों को एकसाथ जानता है, उसे कैवल्य ज्ञान कहते हैं।


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3. सम्यक् चरित्र : चोरी, हिंसा, झूठ, परिग्रह, कुशील- इन पांच पापों के त्याग को सम्यक् चरित्र कहते हैं।
इसके दो भेद हैं- 1. देश चरित्र और 2. सकल ‍चरित्र।

* श्रावकों के व्रतों को देशचरित्र कहते हैं और मुनियों के व्रतों को सकल चरित्र।

* श्रावक (गृहस्थ) पाप न करने की संकल्प करता है किंतु मुनि उसके अनुसार आचरण करते हैं।

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