ऐतिहासिक ग्वालियर किले के अंचल में गोपाचल पर्वत, प्राचीन कलात्मक जैन मूर्ति समूह का अद्वितीय स्थान है। यहाँ पर हजारों विशाल दि. जैन मूर्तियाँ सं. 1398 से सं. 1536 के मध्य पर्वत को तराशकर बनाई गई हैं। इन विशाल मूर्तियों का निर्माण तोमरवंशी राजा वीरमदेव, डूँगरसिंह व कीर्तिसिंह के काल में हुआ। अपभ्रंश के महाकवि पं. रइधू के सान्निध्य में इनकी प्रतिष्ठा हुई।
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ऐतिहासिक ग्वालियर किले के अंचल में गोपाचल पर्वत, प्राचीन कलात्मक जैन मूर्ति समूह का अद्वितीय स्थान है। यहाँ पर हजारों विशाल दि. जैन मूर्तियाँ सं. 1398 से सं. 1536 के मध्य पर्वत को तराशकर बनाई गई हैं।
इन विशाल मूर्तियों का निर्माण तोमरवंशी राजा वीरमदेव, डूँगरसिंह व कीर्तिसिंह के काल में हुआ। अपभ्रंश के महाकवि पं. रइधू के सान्निध्य में इनकी प्रतिष्ठा हुई।
काल परिवर्तन के साथ जब मुगल सम्राट बाबर ने गोपाचल पर अधिकार किया, तब उसने इन विशाल मूर्तियों को देख कुपित होकर सं. 1557 में इन्हें नष्ट करने का आदेश दे दिया, परन्तु जैसे ही उन्होंने भगवान पार्श्वनाथजी की विशाल पद्मासन मूर्ति पर वार किया तो दैवी देवपुणीत चमत्कार हुआ एवं विध्वंसक भाग खड़े हुए और वह विशाल मूर्ति नष्ट होने से बच गई। आज भी यह विश्व की सबसे विशाल 42 फुट ऊँची पद्मासन पारसनाथ की मूर्ति अपने अतिशय से पूर्ण है एवं जैन समाज के परम श्रद्धा का केंद्र है।
भगवान पार्श्वनाथ की देशनास्थली, भगवान सुप्रतिष्ठित केवली की निर्वाणस्थली के साथ 26 जिनालय एवं त्रिकाल चौबीसी पर्वत पर और दो जिनालय तलहटी में हैं, ऐसे गोपाचल पर्वत के दर्शन अद्वितीय हैं।
यद्यपि ये प्रतिमाएँ विश्व भर में अनूठी हैं, फिर भी अब तक इस धरोहर पर न तो जैन समाज का ही विशेष ध्यान गया है और न ही सरकार ने इनके मूल्य को समझा है। जबकि यह तो ऐसा स्थान है, जिसे हम विश्व को गर्व से दिखा सकते हैं।