दान-धर्म के चार अंग

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अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानम्‌।

अनुग्रह के लिए अपनी वस्तु के त्याग करने का नाम है दान।

विधिद्रव्यदातृपात्रविशेषात्तद्विशेषः ।

विधि, देयवस्तु, दाता और ग्राहक की विशेषता से ही दान की विशेषता है। दान का मतलब है अपने पसीने की कमाई दूसरे को प्रेमपूर्वक अर्पण करना।

दान के फल में तर-तम के भाव से विशेषता होती है। उसके चार अंग हैं-

विधि की विशेषता- देश, काल का औचित्य रहे और लेने वाले के सिद्धांत में कोई बाधा न आए, यह है विधि की विशेषता।

द्रव्य की विशेषता- दान की वस्तु लेने वाले के लिए उपकारी और हितकरी हो, यह है द्रव्य की विशेषता।

दाता की विशेषता- दाता में दान लेने वाले के प्रति श्रद्धा और प्रेम हो, प्रसन्नता हो, यह है दाता की विशेषता।

पात्र की विशेषता- दान लेने वाला सत्पुरुषार्थ के लिए जागरूक हो, यह है पात्र की विशेषता।

ऐसे दान से दाता का भी कल्याण होता है, आदाता का भी।
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