पद्मप्रभु समूह

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उत्तर-पश्चिम समूह (पद्म प्रभु समूह)

यह स्थान उरवाई गेट से आगे डोडा गेट की तरह कोटेश्वर रोड पर है। यहाँ पर पाँच गुफाएँ हैं। इन गुफाओं का मार्ग कठिन है। दो गुफाओं पर जाने का तो मार्ग ही नहीं है। इससे पता नहीं चलता कि उन गुफाओं में क्या है। संभवतया मार्गकठिन होने के कारण इस ओर ध्यान नहीं गया है।

भट्टारक पीठ

विक्रम की 10वीं से 18वीं शताब्दी तक भट्टारकों, आचार्यों और विद्वानों की जो परम्परा ग्वालियर और उसके आसपास के विभिन्न राजाओं के शासनकाल में रही है, अभी तक उसका इतिवृत प्राप्त नहीं है। इसी से श्रृंखलाबद्ध कोई इतिहास सामग्री के अभाव में नहीं लिखा जा सकता।

ग्वालियर में भट्टारकों की पुरानी गद्दी रही है तथा वहाँ विविध साहित्य की रचना और अनेक मंदिर-मूर्तियों का निर्माण आदि कार्य भी संपन्न हुआ है। इसकी पुष्टि दूवकुण्ड वाले वि.सं. 1145 के शिलालेख से होती है और जिससे विक्रम की 12वीं शताब्दी में जैनाचार्यों के विहार और धर्मोपदेश आदि का परिचय मिलता है।

अध्ययन से पता चलता है कि ग्वालियर में तीन संघों की भट्टारक पीठ रही है। 1. नंदि संघ, 2. बलात्कारगण उत्तर शाखा एवं 3. काष्ठा संघ माथुर गच्छ।

ज्योतिषाचार्य डॉ. नेमीचंद सिद्धांत शास्त्री ने अपनी पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा के पृष्ठ 442 पर नंदि संघ की पट्टावली के आचार्यों की नामावली दी है, जो निम्न प्रकार है- 65. हेमकीर्ति (1209), 66. चारूनन्दि (1216), 67. नेमिनंदि (1223), 68. नाभिकीर्ति (1230), 69. नरेंद्रकीर्ति (1232), 70. श्रीचंद्र (1241), 71. पद्म (1248), 72. वर्धमानकीर्ति (1253), 73. अकलकचंद्र (1256), 74. ललितकीर्ति (1257), 75. केशवचंद्र (1261), 76. चारूकीर्ति (1262), 77. अभयकीर्ति (1264), 78. बसंतकीर्ति (1264)।

इस पट्टावली के नीचे उन्होंने लिखा है कि इंडियन एंटिक्वेरी की जो पट्टावली मिली है, उसमें उपर्युक्त चौदह आचार्यों का पट्ट ग्वालियर में लिखा है, किन्तु वसुनन्दी के श्रावकाचार में इनका चित्तौड़ में होना लिखा है, परन्तु चित्तौड़ के भट्टारकों की अलग पट्टावली है, जिसमें ये नाम नहीं पाए जाते। संभव है कि यह पट्ट ग्वालियर में हो। इनको ग्वालियर की पट्टावली से मिलाने पर निश्चय होगा।

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