चातुर्मास की अवधि में पयुर्षण पर्व के सुअवसर पर जैन संत और विद्वान समाज को दशधर्मों का अनुसरण करने की सुप्रेरणा प्रदान करते हैं। धर्म का सार आत्मा को अवतरित होकर फलीभूत होता है। आदर्श जीवन और सुख-शांति के लिए धर्म का आधार नितांत जरूरी है। धर्म की धुरी के बिना जीवन सही दिशा में गतिशील नहीं हो सकता है। प्रलोभन, बल अथवा नकल से धर्म का कोई संबंध नहीं है। धर्म आत्मा शुद्धि के मार्ग से जीवन में परिवर्तन लाता है। धर्माचरण का प्रमुख तत्व अहिंसा है। जीवन निर्माण की पद्धति में व्रत-उपवास की अहम भूमिका है। इस संदर्भ में पयुर्षण पर्व हमारे समक्ष ज्ञानपरक तथ्य प्रकट करता है।
धर्म साधना के लक्ष्य में जाति, लिंग, रंगभेद अथवा निर्धन, धनिक जैसे लौकिक अंतर बाधक नहीं हो सकते। धर्म आध्यात्मिक चिंतन का एक अविरल झरना है। धर्म की शिक्षाएँ चित्त को उदार और निश्चिंत कर देती हैं। जीवन में निखार लाने के लिए हमें सदियों से धर्म का उजाला मिलता रहा है। पयुर्षण पर्व इस कथन का जीवंत प्रतीक है। जैन संत पादविहार करते हुए धर्म को जन-जन तक पहुँचाते रहे हैं। इसके बावजूद यदि हम लाभान्वित नहीं होते तो फिर भाग्यशाली कैसे हो सकते हैं?
हिंसा की प्रवृत्ति को टालने के लिए अहिंसा ही एकमात्र उपाय है। यदि कोई युद्धप्रेमी है तो उसे अपने अवगुणों से युद्ध करते हुए उन्हें जीवन रेखा से खदेड़ देना चाहिए। संयम से जीवन में नैतिक उत्थान लाएँ। मन की चंचलता पर ज्ञान का अंकुश लगाएँ। तीर्थंकरों के सँजोए दीप से अपने पथ में उजाला लाएँ। मन के पखेरू की कल्पनातीत उड़ान को व्यर्थ न जाने दें और एक धर्म का उपयुक्त आकाश दें। विचार और आचार के महत्व को भलीभाँति समझें। विचार स्यादवाद तथा अनेकांत की दृष्टि से परिपक्व होता है। जबकि आचार सत्य-अहिंसा को शक्ति से निखारकर अनुकरणीय बनाता है। एक वस्तु को जाँचने के अनेक पहलू हो सकते हैं। अतः उसे भिन्न-भिन्न प्रकार से देखना उचित है। किसी वस्तु को अनेकांत दृष्टि से देखने का अभ्यास दार्शनिकता की श्रेणी में आता है।
आत्मतत्व की अवहेलना कर शरीर का पोषण करने वाला लक्ष्य तक कैसे पहुँच सकता है? मन को वश में करके इंद्रियों पर विजय प्राप्त की जा सकती है। क्रोध, मान, माया, लोभ जैसे कषायों पर नियंत्रण जरूरी है। स्वतंत्रता की अनुभूति के लिए धर्म मंगलमय है। जिसने धर्म को आत्मसात कर लिया उसे सुख की तलाश में भटकना नहीं पड़ता। सुख उसके अंतर में विराजित होता है।
पयुर्षण पर्व की महान उपलब्धि यह है कि शरीर इस भाँति मुक्त हो कि इसे पुनः धारण करने की जरूरत नहीं पड़े। यही निर्वाण अवस्था है। भगवान महावीर स्वामी ने इसी निर्वाण को प्राप्त किया है। सांसारिक कष्टों से मुक्ति के लिए क्यों न हम निर्वाण प्राप्ति को लक्ष्य बनाएँ। जिस प्रकार चावल में अंकुरित होने की शक्ति नहीं होती, उसी प्रकार निर्वाण प्राप्त कर लेने के पश्चात जीवन अंकुरित होने अर्थात जन्म/मरण के दुःखों से सदा के लिए मुक्त हो जाता है।
' आत्मशुद्धि साधनम् धर्मः' अर्थात जो भी आत्मशुद्धि के साधन हैं, धर्म हैं। पर्वराज पर्यूषण की शिक्षा हमें धर्म साधना द्वारा कल्याण के मार्ग से जोड़ती है। इससे आत्मा में परिशुद्धता और जीवन में पारदर्शिता आती है। जैन शास्त्रों के आधार पर पर्यूषण पर्व के अंतर्गत दशधर्मों का नामांकन इस प्रकार किया गया है-
उत्तम क्षमा मार्दव आर्जव सत्य शौच संयम तप त्याग आकिंचन ब्रह्मचर्य
उत्तम क्षमा धर्म : क्रोध को उत्तम क्षमा से जीतें। क्रोध को एक व्याधि मानकर क्रोधी को क्षमा करें। उसे अपनी भूल पर पश्चाताप का अवसर दें। जन्म हमारे भविष्य का प्रतीक है। हम कैसा भविष्य चाहते हैं। इसे क्षमा का गुण तय करेगा। साँसें टूटने के पश्चात भविष्य अतीत हो जाता है, लेकिन क्षमा का अस्तित्व फिर भी रहता है। अतः क्षमाभाव की गहराई को समझें। हम विश्व बंधुत्व की भावना का विस्तार क्षमाभाव से कर सकते हैं। मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षी भी मैत्री भाव प्रकट करते हुए देखे गए हैं।
बंधुता की कोई सीमा नहीं है। इसमें प्राणी मात्र के प्रति मैत्री भाव समाहित है। किसी को घृणा की दृष्टि से नहीं देखना मैत्री भाव है। मैत्री भाव का तत्व हर व्यक्ति के चरित्र में परिलक्षित होता है। यद्यपि इसके स्वरूप भिन्न-भिन्न हो सकते हैं। मैत्री में क्षमा का भाव निहित होता है। जैन आगमों में क्षमा के परिप्रेक्ष्य में इस श्लोक के अंतर्गत हृदयग्राही बात कही गई है-
' खामेमि सव्वजीवे सव्वेजीवा खमंतु मे। मित्ती मे सव्वभुएसु वेरं मज्झ न केणई॥' अर्थात मैं अपनी भूलों/त्रुटियों आदि के लिए सब जीवों से क्षमा याचना करता हूँ। मेरा किसी के प्रति बैर या शत्रु भाव नहीं है। विश्व बंधुत्व की श्रेष्ठ संभावनाएँ इस श्लोक में व्यक्त की गई हैं। क्षमा याचक और क्षमा प्रदाता, दोनों को क्षमा भाव अंगीकार करना चाहिए। महावीर वाणी में क्षमा के संदर्भ में यह श्लोक भी मनन योग्य है-
' कोहुप्पत्तिस्सपुणो बहिरंगं जदि हवेदी सक्खादं। कुणदि किंचि वि कोहो तस्स खमा होदि धम्मो त्ति॥' अर्थात क्रोध के कारण को देखते हुए भी जो व्यक्ति अपने पर नियंत्रण रखते हुए क्रोधित नहीं होता, वह उत्तम क्षमा धर्म की महिमा से सुपरिचित है। क्षमा धर्म के प्रति ये पंक्तियाँ भी अमल करने योग्य हैं-
' बदले से तो एक दिन, होता मन को मोद। किंतु क्षमा से नित्य हो, गौरव का आमोद॥' अर्थात बदले की भावना से मात्र एक दिन की अस्थायी खुशी मिल सकती है जबकि क्षमा कर देने से हर दिन गौरवशाली खुशी प्रदान करता है।
उत्तम मार्दव धर्म : पर्यूषण महापर्व की शिक्षाओं के अंतर्गत उत्तम मार्दव धर्म को हृदय की कोमलता और स्वभाव की विनम्रता के माध्यम से अनुभव करें। मार्दव का आशय अंतरमन की परिशुद्धता से संबद्ध है। सहज हृदय से कषायों से मुक्ति मिलती है। इस संदर्भ में निम्न श्लोक के अर्थ को अपनी स्मृति में सँजो लीजिए-
' कुल-रुव-जादि-बुद्धिसु तव-सुद-सीलेसु गारवं किंचि। जो ण वि कुव्वदि समणो मद्दव धम्म हवे तस्स॥' अर्थात मार्दव धर्म उस व्यक्ति को फलीभूत होता है जो जीवन में कुल, रूप, जाति, बुद्धि, तप, श्रुत तथा शील का तनिक गुमान नहीं करता है।
उत्तम आर्जव धर्म : आर्जव धर्म का विश्लेषण करते हुए संतों ने अपनी अमृतमयी वाणी में व्यक्त किया है कि परिणामों की सरलता के प्रभाव से जब जीवन मायाचारिता के दुर्गुण से दूर हो जाता है तो हम ईश्वरत्व के निकटतम होते हैं। यह महान उपलब्धि हमें आर्जव धर्म की महिमा से मिलती है। उत्तम आर्जव धर्म के प्रति रचा गया यह श्लोक हमारा मार्ग सुगम्य करता है-
' जे चिंतेइ ण वंकं ण कुणदि वंकं ण न जपए वंकं। ण य गोवदि णिय-दोसं अज्जव-धम्मो हवे तस्स॥' इस श्लोक का सरलार्थ है कि जो व्यक्ति अनर्गल चिंतन नहीं करता, शरीर से अप्रिय आचरण और जिह्वा से कटु शब्दों का प्रयोग नहीं करता, अपने दोषों पर पश्चाताप करता है, उसे नियम से उत्तम आर्जव धर्म का लाभ अवश्य प्राप्त होता है।
उत्तम सत्य धर्म : कई सत्यनिष्ठ व्यक्ति संसार सागर से पार हो गए हैं। और जो सत्य मार्ग से भटक गए, वे अनेक दुःखों से घिर गए हैं। सत्य जीवन का आधारभूत तत्व है। सत्य धर्म के परिपालन से जीवन आपदाओं से मुक्त रहता है। सत्य वचनों से आदमी समाज में आदर पाता है। कहा गया है- सत्य धर्म का मूल है। अतः इस नश्वर संसार में सत्यनिष्ठ से बढ़कर और कौन प्रतिष्ठित होगा? उत्तम सत्य धर्म के प्रकाश में यह श्लोक अत्यंत मार्मिक है-
' परसंतावयकारण वयणं मोत्तूण सपरहिदवयणं। जो वददि भिक्खु तुरियो तस्स दु धम्मो हवे सच्चं॥'
अर्थात जो दूसरे के मन को दुःखी करने वाले शब्दों को नकार कर स्वयं तथा दूसरे का हित साधने वाले सत्य शब्दों को निष्ठा और मधुरता से उच्चारित करता है, उसे उत्तम सत्य धर्म का ऐसा उजाला मिलता है, जिसके द्वारा अहिंसक राहें सुस्पष्ट दृष्टिगोचर होती हैं। एक सत्य आचरण से कई सत्य उजागर हो जाते हैं। 'सच्चं भगवं' अर्थात सत्य ही भगवान है। 'सच्चं लोकम्मि सारभूयं' यानी सत्य जग में सारभूत है। 'सत्यमेव जयते' सत्य की विजय होती है। एक झूठ को साधने के लिए कई झूठ बोलने पड़ते हैं। अतः जीवन में सत्य का अनुसरण करना चाहिए।
उत्तम शौच धर्म : मन में लोभ तथा दृष्टि में परिग्रह छाया हुआ हो तो ऐसी अवस्था में शौच यानी कि शुद्धता से वास्ता नहीं होगा। कहावत है- 'मन चंगा तो कठौती में गंगा।' मन की वैराग्यता के लिए उत्तम शौच धर्म का परिपालन नितांत आवश्यक है। इस श्लोक में यही बात उल्लेखित है-
' करवा भावणिवित्तिं किच्चा वेरग्यभावणाजुत्तो। जो वट्टदि परममुणी तस्स दु धम्मो हवे सोच्चं॥' अर्थात जो व्यक्ति आकांक्षा- अपेक्षाओं के विचार को तजकर वैराग्य भावना के पथ की ओर निहारता है, उसे यथार्थ रूप से उत्तम शौच धर्म का अपूर्व लाभ मिलता है।
उत्तम संयम धर्म : चार कषायों (क्रोध, मान, माया, लोभ) का परित्याग करते हुए मन, वचन और काया (देह) पर नियंत्रण के साथ इंद्रियों को काबू में रखने से संयम धर्म की प्रतीति होती है। संयम धारण करते हुए कई तीर्थंकरों ने मोक्षपद प्राप्त किया है। संयम धर्म के अंतर्गत इंद्रिय संयम, दृष्टि संयम, खाद्य संयम, इच्छा संयम, व्यापार संयम तथा उपकरण संयम आदि भाव निहित हैं। संयम धर्म के प्रति लिखे गए इस श्लोक पर गंभीरता से चिंतन-मनन कीजिए-
' जो जीव-रक्खण-परो गमणागमणादि-सव्व-कम्मेसु। तण-छेदं पि ण इच्छदि संजम-भावो हवे तस्स॥' अर्थात जो व्यक्ति आवागमन के समय भी जीवों की रक्षा का भाव सँजोए रहता है, तिनके के छेदन को भी नहीं चाहता, उत्तम संयम धर्म के प्रति उसके मन में अपार निष्ठा होती है।
उत्तम तप धर्म : धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि इच्छाएँ अनंत हैं। इनका अंत नहीं है। इन हालातों में इंद्रियों पर अंकुश तथा इच्छाओं पर रोक तप है। इच्छाओं के विस्तार से जीवन पथ में दुःखों के शूल उग आते हैं। इन्हें हटाने का तप ही एकमात्र उपाय है। तप के निमित्त यह श्लोक हमें आशान्वित करते हुए सुप्रेरित करता है-
' विसय कसायविणिग्गहभावं काऊण झाणसज्झाए। जो भावई अप्पाणं तस्स तवं होदि णियमेव॥' अर्थात जो मनुष्य ध्यान तथा स्वाध्याय से अपनी आत्मा को विकसित कर लेता है, उसके जीवन में विषय-कषाय आदि दुर्गुण दूर होते हैं और उसे उत्तम तप धर्म की गहराई में झाँकने का सुअवसर प्राप्त होता है।
उत्तम त्याग धर्म : संग्रह वृति से मुक्त होकर अंतरंग और बहिरंग परिग्रह का परित्याग करते हुए आत्मकल्याण में लवलीन हो जाने की अवस्था को उत्तम त्याग की संज्ञा से विभूषित किया गया है। इस उपलक्ष्य में उक्त श्लोक भी त्याग का मार्ग प्रशस्त करता है-
' जो चयदि मिट्ठ-भोज्यं उवयरणं राय-दोस-संजणयं। वसदि ममत्त-हेदुं चाय-गुणो सो हवे तस्स॥' अर्थात जो सुस्वादु भोजन तथा राग-द्वेष प्रकट करने वाली वस्तुओं पर ध्यान केंद्रित नहीं रखता, जिसकी प्रीति वास-स्थान आदि में अटकी नहीं है, जो इन्हें कभी भी छोड़ने को तत्पर है, वह व्यक्ति वास्तव में उत्तम त्याग धर्म का पारखी है।
उत्तम आकिंचन धर्म : आध्यात्मिक धरातल पर आकिंचन धर्म को मुक्ति प्रदाता कहा गया है। इसकी साधना से सच्चा आत्मज्ञान होता है। आत्मा के अतिरिक्त और कोई पदार्थ अथवा वस्तु मेरी नहीं है। आकिंचन धर्म के माध्यम से यह अनुभूति निज स्वरूप की ओर अग्रसर करते हुए परमात्म तत्व का सुपरिचय देती है। आत्म ज्ञान के सान्निध्य में आसक्ति और मोह आकर्षित नहीं कर पाते। आत्म साधना, आत्म अवलोकन, आत्म परिष्कार तथा आत्मोन्नति आकिंचन धर्म के दर्पण में स्पष्ट झलकते हैं। आकिंचन धर्म का विश्लेषण इस दोहे में कितना मर्मस्पर्शी जान पड़ता है-
' होउण य णिस्सगो णियभावं णिग्गहित्तु सुहदुहदं। णिद्दंदेण दु वट्टदि अणयारो तस्स किंचण्ह॥' अर्थात जो मनुष्य सांसारिक परिग्रहों से विमुख रहकर सुख-दुःख को आत्म विचारों का निग्रह करते हुए निर्गंथ तथा निद्वन्द्व रहने का अभ्यस्त होता है, उसके उत्तम आकिंचन धर्म साथ होता है।
उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म : संयमित व्यवहार के साथ आत्मा में रमण की प्रवृत्ति को उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म कहा गया है। इस अवस्था में काम पिपासा की ओर दृष्टि नहीं होती। ब्रह्मचर्य इंद्रियों पर पूर्ण विजय का ज्वलंत उदाहरण है। कामजन्य व्याधियों से बचने के लिए ब्रह्मचर्य धारण करना उत्तम उपाय है। इसके परिपालन से शारीरिक क्षमताओं सहित तेजस्वी व्यक्तित्व प्राप्त होता है। विडंबना है कि पशुओं में तो संभोग के समय का ज्ञान है जबकि मनुष्य हर घड़ी भोग-विलास के प्रति आसक्त रहता है। यह लम्पटता उसके हित में कैसे हो सकती है? संतति निरोध के जितने तरीके हैं उनसे बेहतर ब्रह्मचर्य का परिपालन सिद्ध हो सकता है। ब्रह्मचर्य की गरिमा को इस श्लोक में चित्रित किया गया है-
' जो परिहरेदि संगं, महिलाणं णेव पस्सदे रूवं। कामकहादिणियत्तो णवहा बंभं हवे तस्स॥' अर्थात जो लालसा की दृष्टि से रूप को नहीं निहारता, महिलाओं की संगति में रुचि नहीं लेता, काम-वासना के कथा-किस्सों में रत नहीं रहता, जो मन, वचन, काया के कर्त्तव्यों का निर्वहन करते हुए संस्कारों का आदर करता है, ऐसे आदर्श व्यक्तित्व के धनी पुरुष को उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म का पुण्य लाभ होता है।
अनादि पर्यूषण पर्व के दो पहलू हैं। एक लौकिक तथा दूसरा अलौकिक। हमें इसके दोनों पहलुओं की शिक्षाओं को हृदयंगम करना चाहिए। उपासना के जरिए आत्मा के निकट बने रहना इसका परम लक्ष्य है। यह पर्व प्राणीमात्र के प्रति मंगल कामना प्रकट करता है।
' उत्तमक्षमा मार्दवार्जव सत्य शौच संयम तपस्त्यागाकिंचन्य ब्रह्मचर्याणि धर्मः॥' यह श्लोक दशधर्मों की भावना को समेटे हुए है। पर्यूषण पर्व आत्मा में प्रवेश का आध्यात्मिक द्वार है। जो साधना के फलस्वरूप खुलता है। पर्वराज पर्यूषण के माध्यम से हम अपने निज स्वभाव की ओर लौटते हैं। धर्म का मूल दर्शन है। यह तथ्य जानने वाला धर्मात्मा होता है। पर्यूषण शब्द अपभ्रंश है। इसके विभिन्न प्राकृत रूप हैं।
जैसे कि - पज्जूसन, पज्जोसवण, पज्जोसमन इत्यादि। वात्सल्य पर्व पर्यूषण का एक और अर्थ विद्वानों की दृष्टि में परि+उषन अर्थात परभाव से विरक्त होकर निज स्वभाव में रमण करना है। सही अर्थों में पर्यूषण महापर्व आत्म जिज्ञासाओं के लिए, आत्म जागृति का महानतम पर्व है। क्या हम दशधर्मों की कसौटी पर अपने जीवन और चरित्र को हर समय परखने के लिए तैयार हैं? इस प्रश्न के उत्तर की प्रतीक्षा और कब तक की जाती रहेगी?