प्रभु स्तुति

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दर्शनं देवदेस्य, दर्शनं पाप नाशनं ।
दर्शनं स्वर्ग सोपानं, दर्शनं मोक्ष साधनं ॥

प्रभु दर्शन सुख संपदा, प्रभु दर्शन नव निध ।
प्रभु दर्शन थी पामीये, सकल पदारथ सिद्ध ॥

भावे भावना भावीये, भावे दीजे दान ।
भावे जिनवर पूजीये, भावे केवल ज्ञान ॥

तुभ्यं नमस्त्रिभुवनार्तिहराय नाथ ।
तुभ्यं नमः क्षितितलामल भूषणाय ॥

तुभ्यं नमस्त्रिजगतः परमेश्वराय ।
तुभ्यं नमो जिन भवोदधि शोषणाय ॥

अयथा शरणं नास्ति, त्वमेव शरणं ममः ।
तस्मात्‌ करुण्य भावेन, रक्ष रक्ष जिनेश्वर ॥

जे दृष्टि प्रभु दर्शन करे, ते दृष्टिने पण धन्य छे ।
जे जीभ जिनवरने स्तवे, ते जीभने पण धन्य छे ॥

पीए मुद्रा वाणीसुधा, ते कर्ण युगने धन्य छे ।
तुज नाम मंत्र विशद धरे, ते हृदयने पण धन्य छे ॥

मंगलं भगवान वीरो, मंगलं गौतम प्रभुः ।
मंगलं स्थूलि भद्राद्या, जैन धर्मोस्तु मंगलं ॥

दादा तारी मुख-मुद्राने, अमीय नजर थी निहाली रह्यो ।
तारा नयनोमांथी झरतुं, दिव्य तेज हुं झीली रह्यो ॥

क्षण भर आ संसारनी माया, तारा भक्तिमा भूली गयो ।
तुज मूर्तिमां मस्त बनी ने, आत्मिक आनंद मानी रह्यो ॥

सरस शांति सुधारस सागरं शुचितरं गुणरत्न महागर ।
भविक पंकज बोध दिवाकर, प्रतिदिनं प्रणमामि जिनेश्वरं ॥

देखी मूर्ति पार्श्व जिननी, नेत्र मारां ठरे छे ।
ने हैयुं मारुं फरी फरी, प्रभु ध्यान तारुं धरे छे ॥

आत्मा मारो प्रभु तुज कने, आववां उल्लसे छे ।
आपो एवुं बल हृदयमां, माहरी आश ए छे ॥

हे प्रभो! आनंददाता ज्ञान हमको दीजिए ।
शीघ्र सारे अवगुणों को, दूर हमसे कीजिए ॥

लीजिए हमको शरण में, हम सदाचारी बनें ।
ब्रह्मचारी धर्म रक्षक! वीर व्रतधारी बनें ॥

परमात्मा की प्रतिमा के सामने देखते ही रहें... देखते ही रहें... प्रशमरस-निमग्न परमात्मा की आँखों में निहारते रहें... मौन... खामोश होकर... उन आँखों की अथाह गहराई में डूब जाएँ!

नया आनंद, नई ताजगी की अनुभूति होगी। इसके बाद धूप एवं दीपक द्वारा परमात्मा की पूजा करें। यदि पहले से दीपक जलता हो... धूपदाने में धूप हो, तो नया दीपक न जलाएँ... न ही अगरबत्ती जलाएँ... जो है, उसी से धूप व दीपक पूजा कर लें। चँवर डुलाना हो तो डुला सकते हैं।

अब यदि आप चावल का बटुवा साथ लाए हों तो प्रभुजी के समक्ष पाटे पर सुंदर स्वस्तिक रचाना चाहिए। जिसका क्रम निम्न है- पहले स्वस्तिक रचाइए, फिर तीन ढेरी बनाइए, फिर सिद्धशिला (चाँद पर बिन्दु) बनाइए। पतली धारवाला चंद्र सिद्धशिला का एवं बिन्दु आत्मा का प्रतीत है।

स्वस्तिक जैसे मांगलिक हैं, शुकुन है.. उसी तरह उसके चार खाने, चार गति (देव, मनुष्य, तिर्यंच व नरक गति) के प्रतीक हैं। हमें इससे छुटकारा चाहिए... इसलिए चावल की तीन ढेरी रचाकर हम प्रभु से ज्ञान-दर्शन-चारित्र की कामना व्यक्त करते हैं। ज्ञान-दर्शन-चारित्र की आराधना द्वारा हमारी आत्मा को सिद्धशिला पर पहुँचाना है। इसी भावना को लेकर हमें स्वस्तिक रचना है।

यदि चढ़ाने के लिए फल एवं मिठाई लाए हों, तो सिद्धशिला पर फल एवं स्वस्तिक पर मिठाई (नैवेद्य) रखें।

अब यदि समय हो... तो हमें परमात्मा का चैत्यवंदन (स्तवना) करना चाहिए। अन्यथा तीन खमासमण देकर परमात्मा को प्रणाम करके बाहर निकल सकते हैं।
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