भगवान अनंतनाथ

जैन धर्म के चौदहवें तीर्थंकर

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जैन धर्म ग्रंथों के अनुसार अयोध्या में उन दिनों इक्ष्वाकु वंशी राजा सिंहसेन का राज्य था। उनकी पत्नी का नाम सर्वयशा था। एक रात नींद में महारानी सर्वयशा ने सोलह शुभ स्वप्न देखें, स्वप्न में हीरे-मोतियों की एक माला देखी, जिसका कोई आदि या अंत उन्हें दृष्टिगोचर नहीं हुआ।

सर्वयशा ने देखा कि देवलोक से रत्नों की वर्षा हो रही है। इस स्वप्न के बारे में उन्होंने राजा सिंहसेन को बताया तो वे समझ गए कि शीघ्र ही उनके घर-आंगन में चौदहवें तीर्थंकर जन्म लेने वाले हैं। इस शुभ समाचार को उन्होंने राज्य के लोगों सुनाया, तो उसे सुनकर पूरा राज्य में खुशी की लहर दौड़ गई। तभी राजा सिंहसेन ने महारानी के साथ यह निर्णय किया कि वे अपने इस पुत्र का नाम अनंत रखेंगे।

इस तरह, चौदहवें तीर्थंकर अनंतनाथ का जन्म ज्येष्ठ कृष्ण द्वादशी के दिन हुआ। उनके जन्म के साथ ही राजा सिंहसेन का राज्य-विस्तार दिनोंदिन बढ़ने लगा। सारी प्रजा धन-धान्य से संपन्न हो गई।

जब अनंत ने युवावस्‍था में पदार्पण किया तो परंपरानुसार राजसी वैभव के साथ उनका शुभ विवाह किया गया। राजा सिंहसेन जब वृद्ध हुए तो उन्होंने अपना राज्यभार अनंतनाथ को सौंपकर स्वयं मुनि बन गए।

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राजा अनंतनाथ बहुत ही दयालु और मैत्री भाव से परिपूर्ण थे। उन्होंने अपने राज्य काल में अपनी प्रजा का संतान की भांति पालन किया। उनके इसी व्यवहार और विचारों से प्रभावित होकर अनेक राजा-महाराजा उनके अनुयायी बनते चले गए। राजा अनंतनाथ ने न्यायपूर्वक लाखों वर्ष तक राज्य किया।

अपने 30 लाख वर्ष के जीवन काल में राजा अनंतनाथ के लाखों अनुयायी बने। उन्होंने सभी ओर घूम-घूमकर धर्मोपदेश देकर जनकल्याण किया। फिर एक दिन एक उल्कापात देखकर उन्हें संसार की नश्वरता का बोध हुआ और उन्होंने अपना राजपाट अपने पुत्र अनंतविजय को सौंप कर स्वयं ने मुनि-दीक्षा ग्रहण की। दो वर्ष के तप के पश्चात उन्हें चैत्र माह की अमावस्या को कैवल्य ज्ञान प्राप्ति हुई और वे तीर्थंकर की भांति पूज्यनीय हो गए। चैत्र माह की अमावस्या को सम्मेदशिखर पर 6 हजार 100 मुनियों के साथ उन्हें भी निर्वाण प्राप्त हुआ।

भगवान अनंतनाथ का अर्घ्य :-

शुचि नीर चन्दन शालि तन्दुल, सुमन चरु दीवा धरा।
अरु धूप फल जुत अरघ करि, कर जोर जुग विनती करों।
जगपूज परम पुनीत मीत, अन्नत सन्त सुहावनों।
शिव कन्त वंत महन्त ध्यायो, भ्रन्त तंत नशावनों।

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