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श्री बृहत्-शांति (बड़ी)
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भो भो भव्या! श्रृणुत वचनं, प्रस्तुतं सर्वमेतद्, ये यात्रायां त्रि-भुवन गुरो-रार्हता! भक्ति-भाजः! तेषां शांतिर्भवतु भवतामर्हदादिप्रभावा, दारोग्य-श्री धृति-मति-करी क्लेशविंध्वंस- हेतुः ॥1॥
भो भो भव्यलोकाः इह हि भरतैरावतविदेहसंभवानां समस्ततीर्थकृतां जन्मन्यासन-प्रकम्पानन्तर-मवधिना विज्ञाय, सौधर्माधिपतिः सुघोषा घण्टा-चालनानन्तरं सकल-सुराऽसुरेन्द्रैः सह समागत्य सविन-मर्हद् भट्टारकं गृहीत्वा, गत्वा कनकाद्रिश्रृंगे विहितजन्माभिषेकः शांतिमुद्घोषयति यथा, ततोऽहम् कृतानुकारमिति कृत्वा महाजनो येन गतः स पन्था, इति भव्यजनैः सहसमेत्य, स्नात्रपीठे स्नात्रं विधाय, शांतिमुद्घोषयामि, तत् पूजा-यात्रा स्नात्रादि-महोत्सवानन्तरमिति कृत्वा कर्णं दत्वा निशम्यतां निशम्यतां स्वाहा॥
ॐ पुण्याऽहं पुण्याऽहं, प्रीयन्ता प्रीयन्तां भगवन्तोऽर्हन्तः सर्वज्ञाः सर्वदर्शिनस्त्रिलोक नाथास्त्रिलोक-महतास्त्रिलोकपूज्या-स्त्रिलोकेश्वरा-स्त्रिलोकोद्योतकराः ॥
ॐ ऋषभ-अजित-संभव-अभिनंदन-सुमति पद्मप्रभ-सुपार्श्व-चंद्रप्रभ-
सुविधि-शीतल-श्रेयांस-वासुपूज्य-विमल-अनन्त-धर्म-शांति-कुन्थु-अर-
मल्लि-मुनिसुब्रत नमि-नेमि-पार्श्व-वर्धमानान्ता जिनाः शांताः शांतिकरा भवन्तु स्वाहा ॥
ॐ मुनयो मुनि-प्रवरा रिपु-विजय-दुर्भिक्ष-कान्तारेषु दुर्ग-मार्गेषु रक्षन्त वो नित्यं स्वाहा ॥
ॐ ह्रीं श्री-धृति-मति-कीर्ति-कान्ति-बुद्धि-लक्ष्मी-मेधा-विद्या-साधन-प्रवेश-
निवेशनेषु सुगृहीतनामानोज़यन्तु ते जिनेन्द्राः ॥
ॐ रोहिणी-प्रज्ञप्ति-वज्र श्रृंखला-वज्रांकुशी अप्रतिचक्रा-पुरुषदत्ता-काली-
महाकाली-गौरी-गान्धारी-सर्वास्त्रामहाज्वाला-मानवी-वैरोठ्या-अच्छुप्ता-
मानसी-महामानसी षोडश विद्या-देव्यो रक्षन्तु वो नित्यं स्वाहा ॥
ॐ आचार्योपाध्याय-प्रभृति-चातुर्वर्णस्यं श्री श्रमणसंघस्य शांतिर्भवतु तुष्टिर्भवतु पुष्टिर्भवतु ॥
ॐ ग्रहाश्चन्द्रसूर्याङ्गारक-बुध-बृहस्पति-शुक्र-शनैश्चर-राहु-केतुसहिताः
सलोकपालाः सोम-यम-वरुण-कुबेर-वासवादित्य-स्कंदविनायकोपेता,
ये चान्येऽपि ग्राम-नगर-क्षेत्र-देवतादयस्ते सर्वे प्रीयन्तां प्रीयन्तां,
अक्षीणकोश-कोष्ठागारा नरपतयश्य भवन्तु स्वाहा ॥
ॐ पुत्र-मित्र-भ्रातृ-कलत्र-सुहृत-स्वजन-संबंधि-बंधुवर्गसहिता नित्यं चामोद-प्रमोद-कारिणः।
अस्मिंश्च भूमंडल आयतन-निवासि-साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविकाणां रोगोपसर्ग-व्याधि-दुःख-दुर्भिक्ष-दौर्मनस्योपशमनाय शांतिर्भवन्तु ॥
ॐ तुष्टि-पुष्टि ऋद्धि-वृद्धि-मांगल्योत्सवाः ॥
सदाप्रादुर्भूलतानि, पापानि शाम्यन्तु दुरितानि,
शत्रवः पराङ्मुखा भवन्तु स्वाहा ॥
श्रीमते शांतिनाथाय, नमः शांतिविधायिने,
त्रैलोक्यस्यामराधीश-मुकुटाभ्यर्चितांघ्रये ॥1॥
शांतिः-शांति-करः श्रीमान्, शांति दिशतु मे गुरुः,
शांतिरेव सदा तेषां, येषां शान्तिर्गृहे गृहे ॥2॥
उन्मृष्टरिष्ट-दुष्टग्रह-गति-दुःस्वप्न-दुर्निमित्तादिः
संपादितहित-संपन्नामग्रहणं जयति शांतेः ॥3॥
श्रीसंघ-जगज्-जनपद,-राजाधिप-राज-सन्निवेशानाम्,
गोष्ठिक-पुर-मुख्याणां, व्याहरणैर्व्याहरेच्छन्तिम् ॥4॥
श्री श्रमणसंघस्य शांतिर्भवतु, श्री जनपदानां शांतिर्भवतु,
श्री राजाधिपानां शांतिर्भवतु, श्री राजसन्निवेशानां शांतिर्भवतु,
श्री गोष्ठिकानां शांतिर्भवतु, श्री पौर-मुख्याणां शांतिर्भवतु,
श्री पौरजनस्य शांतिर्भवतु, श्री ब्रह्मलोकस्य शांतिर्भवतु।
ॐ स्वाहा, ॐ स्वाहा, ॐ श्री पार्श्वनाथाय स्वाहा। एषा शांतिः प्रतिष्ठा-यात्रा-
स्नात्रा-द्यवसानेषु, शांतिकलशं गृहीत्वा कुंकुम-चंदन-कर्पूरागरु-
धूपवास-कुसुमांजलि-समेतः स्नात्रचतुष्किकायां श्री संघसमेतः
शुचि-शुचि-वपुः पुष्प-वस्त्र-चंदना-भरणालंकृतः पुष्पमालां कण्ठे कृत्वा शांतिमृद्घोषयित्वा शांतिपानीयं मस्तके दातव्यमिति।
नृत्यन्ति नृत्यं मणिपुष्पवर्षं, सृजन्ति गायन्ति च मंगलानि।
स्त्रोत्राणि गोत्राणि पठन्ति, मंत्रान्, कल्याणभाजो हि जिनाभिषेके ॥1॥
शिवमस्तु सर्वजगतः, पर-हित-निरता भवन्तु भूतगणाः।
दोषाः प्रयान्तु नाशं, सर्वत्र सुखी भवन्तु लोकाः ॥2॥
अहं तित्थयरमाया, सिवादेवी तुम्ह नयरनिवासिनी।
अम्ह सिवं तुम्ह सिवं, असिवोवसमं सिवं भवतु स्वाहा ॥3॥
उपसर्गाः क्षयं यांति, छिद्यन्ते विघ्नवल्लयः।
मनः प्रसन्नतामेति, पूज्यमाने जिनेश्वरे ॥4॥
सर्व मंगल मांगल्यं, सर्वकल्याण-कारणम्।
प्रधानं सर्वधर्माणां, जैनं जयति शासनम् ॥5॥
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