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'संथारा' पर जानिए जैन मुनियों के विचार...

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क्या होती है 'संथारा', जानिए जैन मुनियों की नजर से
 
जैन सल्लेखना/संथारा के बारे में आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज कहते हैं कि जिस प्रकार आप मंदिर बना लो, उसके शिखर बनवा लो, लेकिन कलशारोहण नहीं करो तो वह पूर्ण नहीं होता। इसी प्रकार सल्लेखना भी जीवन में कलशारोहण की भांति है। व्यक्ति के जीवन का अंतिम पड़ाव कलशारोहणरूपी सल्लेखना है। 
 
आचार्यश्री के अनुसार जैन समाज में सल्लेखना का नियम अद्वितीय है। 12 वर्ष पूर्व से ही उसकी साधना की शुरुआत होती है। रात व दिन को एक बनाती है। आत्मा तो अजर-अमर है, क्योंकि यह एक शरीर से दूसरे शरीर में प्रवेश कर जाती है। सल्लेखना करने वाला कभी भावुक नहीं होता। वह संतोष और धैर्य के साथ इस पथ पर जाता है। मृत्यु को सामने देखकर भी वह डरता नहीं है। सब लोग इसके लाभ से लाभान्वित हो। शांति हमारा स्वभाव है, लेकिन शांति को छोड़कर नहीं भीतर की आंखें खोलकर सल्लेखना के पथ पर जाना है। 
 
एक बार संत विनोबा भावे ने भी कहा था कि गीता को छोड़कर और महावीर से बढ़कर इस संसार में कोई नहीं है। यह बात मैं गर्व से नहीं, बल्कि स्वाभिमान से कह सकता हूं। विनोबा भावे ने जैन संतों का भी अनुकरण किया है और उनकी भी सल्लेखना हुई थी। उक्त विचार आचार्यश्री ने सागर के जैन तीर्थक्षेत्र बीनाबारहा में अपने प्रवचन के दौरान कहे। 
 
आचार्यश्री ने कहा कि सल्लेखना के दौरान वर्धा में गांधी आश्रम में भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती ‍इंदिरा गांधी ने उनसे कहा था कि देश को उनकी जरूरत है। उन्हें आहार नहीं छोड़ना चाहिए। तो संत विनोबा भावे ने कहा था कि मेरे और परमात्मा के बीच में अब किसी को नहीं आना है, क्योंकि अब मेरी यात्रा पूर्ण हो रही है। 
 
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संथारा आत्महत्या नहीं, वीर मरण है :- 
 
जैन धर्म में संथारा अर्थात सल्लेखना 'संन्यास मरण' या 'वीर मरण' कहलाता है। यह आत्महत्या नहीं है और यह किसी प्रकार का अपराध नहीं, बल्कि यह स्वस्थ करने का और आत्मशुद्धि का एक धार्मिक कृत्य है। इसकी आत्महत्या से तुलना करना धार्मिक आस्था और भारतीय संस्कृति की हत्या है। यह विचार सागर के वर्णी भवन मोराजी में विराजमान उपाध्याय निर्भय सागरजी महाराज ने कहें। 
 
सल्लेखना बाहरी आडंबर त्यागकर मृत्यु को निकट जानकर आत्मा की शुद्धि के लिए परिजनों से क्षमा-याचना करके किसी सद्गुरु के पास जाकर सारी जनता की साक्षीपूर्वक ली जाती है। संथारा अर्थात संन्यास उस समय धारण किया जाता है, जब उस व्यक्ति को बचाने के लिए डॉक्टर हाथ खड़े कर देता है। जब डॉक्टर कह देता है कि अब इसे भगवान ही बचा सकते हैं।
 
तब ऐसे व्यक्ति के लिए संतजन उपचारक बनकर उस रोगी का मानसिक उपचार करते हैं और उसे मोह, मायाजाल के विकल्प जालों से मुक्त करते हैं और फिर संतुलित, संयमित, आहार, स्वास्थ्य लाभ की दृष्टि से दिया जाता है न कि भूखा मारा जाता है। 
 
एक संथारा धारण करने वाले व्यक्ति के लिए कम से कम 4 और अधिक से अधिक 24 साधु निरंतर सेवा में लगे रहते हैं। उसे अध्यात्म का योग-ध्यान, जप-तप कराते हैं और उसके शरीर की मालिश आदि करते हुए अंतिम क्षणों तक सेवा करते हैं। फिर सल्लेखना आत्महत्या कैसे हो सकती है?
 
वीतरागी संत उपाध्याय निर्भय सागरजी महाराज ने कहा कि यह सल्लेखना सती प्रथा के समान नहीं है, क्योंकि वह वियोग, संकलेश, वेदना, सदमा, जवानी में की जाती है। संथारा पर लगाई गई रोक पर न्यायालय को पुनर्विचार करना चाहिए। 
 
जैन धर्म अहिंसा-प्रधान धर्म है। यहां घास उखाड़ना, कीड़े-मकौड़ों को मारना अपराध माना जाता है और उसका त्याग कराया जाता है। ऐसे में वही जैन धर्म जिंदा आदमी को कैसे मरवा सकता है?
 
जिस प्रकार एक वीर पुलिस जवान राष्ट्र और जनता की रक्षा करते हुए शहीद हो जाता है, तो उसे अपराधी या दंडनीय नहीं माना जाता। उसी प्रकार यदि अहिंसा, सत्य और जीवों की रक्षा, परिवार की शांति, आत्मा की शुद्धि हेतु मृत्यु को निकट जानकर व्रत, नियम-संयमपूर्वक गुरु की शरण में जाकर प्रभु का नाम लेते हुए यदि उसकी मौत होती है तो उसे दंडनीय कैसे माना जा सकता है? धर्मनिरपेक्ष देश में प्रत्येक नागरिक को अपने धा‍र्मिक अनुष्ठान करने की पूर्ण स्वतंत्रता है। 
 
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सल्लेखना आत्महत्या नहीं... - क्षुल्लकश्री ध्यान सागरजी 
 
सल्लेखना के बारे में क्षुल्लकश्री ध्यान सागरजी महाराज के अनुसार राजस्थान हाई कोर्ट द्वारा सल्लेखना/ संथारा पर लगाई गई रोक सरासर अनुचित है। संथारा को आत्महत्या मानने वालों को इसके वास्तविक मतलब को जानना होगा।
 
क्षुल्लकश्री के अनुसार भाषा विज्ञान की दृष्टि से विचार करने पर सल्लेखना 'सत प्लस लेखना' से मिलकर बना है। सत अर्थात सम्यक तथा लेखना अर्थात घटना या कम करना। इसका तात्पर्य यह है कि विशुद्ध भावों के संग अल्प करते जाने का नाम सल्लेखना है। फिर सल्लेखना के इरादे को समझे बगैर यह कैसे तय कर लिया जाए कि वह आत्महत्या ही है। जो जैन व्रती मनुष्य चींटी जैसे छोटे जीवों पर भी दया करके अहिंसा व्रत का पालन करते हैं, क्या वे स्वयं अपना घात स्वप्न में भी कर सकते हैं? अत: राजस्थान हाई कोर्ट द्वारा अपने दिए गए फैसले पर पुनर्विचार किया जाना जरूरी है।
 
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राजस्थान उच्च न्यायालय द्वारा संथारा/ समाधि पर लगाई गई रोक के विरोध में वक्तव्य
 
साथियों, अभी तक तो सुना था कानून अंधा होता है। पर आज राजस्थान उच्च न्यायालय का न्याय सुनकर लगा, कानून नहीं, न्याय सुनाने वाले अंधे हैं। जो जाने-समझे बगैर समाधि/ संथारा को आत्महत्या कहकर अपराध बता रहे हैं।
 
- मुनि प्रज्ञासागर
 
तपोभूमि प्रणेता मुनिश्री प्रज्ञासागर जी महाराज कै अनुसार- वंदेमातरम बोलकर दुश्मनों का सामना करने वाले सैनिकों की मृत्यु को जब शहादत माना जाता है और वे सैनिक शहीद माने जाते हैं, तो णमोकार मंत्र बोलकर मृत्यु का सामना करने वाले साधु-संतों की मृत्यु को आत्महत्या क्यों कहा जा रहा है? 
 
जीवन का अंत जानकर स्वेच्‍छा से आहार-जल का क्रमश: त्याग करके मृत्यु को शांत परिणामों से स्वीकार करने वाले संतों की मृत्यु आत्महत्या नहीं, आत्मकल्याण के लिए उठाया गया अंतिम कदम है। 
 
जैन धर्म आत्महत्या को पाप ही नहीं, महापाप मानता है। इसलिए तो आत्महत्या करने वालों के परिवार को 6 माह के सूतक का विधान है। यदि समाधि, संथारा आत्महत्या होती तो भगवान महावीर स्वामी समाधि का कोई विधान ही नहीं बनाते।
 
अत: समाधि/ संथारा को आत्महत्या कहने वाले कानून के हम सख्त खिलाफ हैं।
 
ॐ नम: सबसे क्षमा, सबको क्षमा। जय गुरुदेव, जय महावीर... 


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