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आत्मशुद्धि का पर्व है पर्युषण

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- डॉ. मनोहर भंडार ी

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जैन दार्शनिक आत्मा के अस्तित्व में विश्वास करते हैं। आस्तिक दर्शनों के समान जैन-दर्शन भी दुःख के विनाश एवं आत्मा की शुद्धता पर जोर देता है। जैन दर्शन को काफी प्राचीन माना गया है। जैन शब्द 'जिन' से बना है जिसका अर्थ है जीतने वाला। जिसने अपने आत्मिक विकारों (काम, क्रोध, लोभ, मद, मोहादि) पर पूरी तरह विजय प्राप्त कर ली हो, वही जिन है। जैन-दर्शन के अनुसार जीवात्मा और परमात्मा में यही भेद होता है कि जीवात्मा अशुद्ध होता है, काम, क्रोधादि विकारों और उनके कारण कर्मों से बद्ध होता है। जब वह उन कर्मों का नाश कर देता है तो वही परमात्मा अर्थात 'जिन' हो जाता है।

' जिन' हो जाने पर वह सर्वज्ञ एवं वीतराग (राग-द्वेष से मुक्त) हो जाता है। यही वजह है कि जैन दर्शन किसी ईश्वर या स्वयंसिद्ध पुस्तक के द्वारा नहीं कहा गया है, बल्कि उस मानव द्वारा कहा गया है, जो अपने पौरुष से अपनी आत्मा को मुक्त कर सर्वज्ञ एवं 'जिन' बन गया। जैन मतानुसार यदि ईश्वर है, तो वह एक नहीं है बल्कि असंख्य है, क्योंकि जैन धर्म के अनुसार प्रत्येक आत्मा अपनी स्वतंत्र सत्ता के साथ मुक्त हो सकती है। ये मुक्त जीव ही जैन धर्मानुसार ईश्वर है।

जो मुक्त जीव अपनी मुक्ति की साधना के बाद अन्य संसारी जीवों को भी दुःखों से मुक्त होने का मार्ग बताते हैं एवं जिनके उपदेशों से अन्य जीव भी मुक्ति के मार्ग को प्रशस्त होते हैं, ऐसे तीर्थस्वरूप मुक्त जीवों को तीर्थंकर या अरिहंत कहा जाता है। भगवान ऋषभदेव प्रथम एवं महावीर स्वामी 24वें तथा अंतिम तीर्थंकर माने गए हैं।

दार्शनिकों के द्वारा नास्तिक निरूपित किए जाने के बाद भी जैन, ईश्वर के स्थान पर तीर्थंकरों की पूजा-उपासना करते हैं। जैन मतानुसार तीर्थंकर अथवा कोई अन्य उन्हें मुक्त नहीं कर सकते, मुक्ति की प्राप्ति तो अपने ही कर्मों से हो सकती है। डॉ. हेल्मुथवन ग्लासनेप ने जैन दर्शन के कर्म सिद्धांत को आत्म-स्वातंत्र्य का सूत्रधार निरूपित करते हुए इसे अत्यंत यथार्थवादी माना है।

जैन धर्म में अनेकानेक निषेधात्मक निर्देश हैं, मसलन रात्रि भोजन का त्याग, झूठ न बोलना, चोरी नहीं करना, हिंसा नहीं करना, परिग्रह नहीं करना, जमीकंद का त्याग, चातुर्मास के समय पत्तीवाली हरी सब्जियों का त्याग, पानी का कम से कम प्रयोग, एकदिवसीय उपवास में (लगभग 36 घंटे तक) उबले हुए जल के (वह भी दिन के समय) अलावा सभी वस्तुओं का सेवन निषेध आदि।

आयम्बिल में उबला हुआ परंतु बिना बघारा, नमक-मिर्च मसाले से रहित अन्नाहार (दालें, गेहूं, चावल आदि न कि फल, सब्जी, मिठाई) दिन में एक बार खाने का विधान है। परंतु इसके धार्मिक लाभ उपवास से कई गुना बताए गए हैं। संभवतः घी-मसाले से रहित भोजन ग्रहण करने से व्यक्ति की जीभ को संयम की जिस प्रक्रिया से गुजरना होता है उसे निराहार से अधिक महत्वपूर्ण माना गया है।

पर्युषण पर्व आत्म शुद्धि का महापर्व है। पर्युषण 'परि' उपसर्ग, 'उष' धातु और 'अनट्' प्रत्यय से बना है। ट् इत्संज्ञक होने से लुप्त हो जाता है। परि अर्थात सब ओर से, उष अर्थात जलाना, मारना, हिंसा करना। पर्युषण पर्व का अर्थ है वह काल जिसमें हर प्रकार से, सब ओर से कर्मों का नाश कर आत्मा पवित्र की जाए और कर्मों से मुक्त आत्मा मोक्षगामी बने।

श्वेतांबर जैन भाद्रपद कृष्ण द्वादशी से भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी तक आठ दिन एवं दिगंबर जैन भाद्रपद शुक्ल पंचमी से भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी तक दस दिन यह पर्व मनाते हैं। पर्युषण पर्व को आठ अथवा दस दिन तक सीमित करने के पीछे एक कारण है। जैन मतानुसार दुःख से सुख की ओर बढ़ने वाला कालचक्र का पहिया उत्सर्पिणी काल और सुख से दुख की ओर का काल अवसर्पिणी काल माना गया है। वर्तमान समय अवसर्पिणी काल है। जैन मतानुसार इस अवनति काल में मनुष्य के पास न तो दृष्टि या भाव रहता है और न ही समय कि वह आत्मशुद्धि कर सके। इसीलिए धर्माचार्यों ने आत्मशुद्धि की नित्य चलने वाली प्रक्रिया के लिए आठ और दस दिन का सीमित काल निश्चित कर दिया ताकि धर्मावलंबी आत्मशुद्धि की दिशा में वर्ष भर न सही, इतने कम समय के लिए ही प्राणप्रण से सत्प्रयास कर सकें।

वर्षाकाल में पर्युषण पर्व के कुछ अन्य पहलू भी हैं। चातुर्मास का समय होने से जैन साधुओं का आवागमन स्थगित रहता है। अतः उनका सतत सान्निध्य एक ही स्थान पर मिल जाता है। वर्षाकाल में वाणिज्यिक गतिविधियां शिथिल-सी हो जाती हैं। महर्षि चरक के अनुसार वर्षा ऋतु में ऊर्जा का क्षय कम हो जाता है तथा पेट की अग्नि (भूख) मंद हो जाती है। अतएव इस दौरान दीर्घकालीन उपवास तथा अन्य धार्मिक तपश्चर्या तुलनात्मक रूप से सरलता से संभव है। दिगंबर जैन इसे दश लाक्षणिक पर्व भी कहते हैं। 'उत्तम धर्म के दस भेद' नामक एक सूत्र को आधार बनाकर उत्तम क्षमा, उत्तम नम्रता, उत्तम सरलता, उत्तम पवित्रता, उत्तम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम निष्परिग्रहिता एवं उत्तम ब्रह्मचर्य को आत्मा का स्वभाव माना गया है।

पर्युषण महापर्व के अंतिम दिन संध्या के समय सांवत्सरिक (वार्षिक) प्रतिक्रमण होता है। इस प्रतिक्रमण में जैन मतावलंबी चौरासी लाख योनि जीवों से मन, वचन एवं काया से क्षमा-याचना करते हैं तथा उसके दूसरे दिन प्रातःकाल से सभी परिजनों, मित्र, शत्रुओं से सम्मान एवं स्नेहपूर्वक क्षमा-याचना करते हैं। इस तरह 'पर्युषण पर्व' आत्मशुद्धि के साथ-साथ मनोमालिन्य को दूर करने का सुअवसर प्रदान करने वाला महापर्व है।
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