जैन धर्म की मुख्य बातें

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' जैन' कहते हैं उन्हें, जो 'जिन' के अनुयायी हों। 'जिन' शब्द बना है 'जि' धातु से। 'जि' माने-जीतना। 'जिन' माने जीतने वाला। जिन्होंने अपने मन को जीत लिया, अपनी वाणी को जीत लिया और अपनी काया को जीत लिया, वे हैं 'जिन'। जैन धर्म अर्थात 'जिन' भगवान्‌ का धर्म।

जैन धर्म का परम पवित्र और अनादि मूलमंत्र है-
णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं ॥

अर्थात अरिहंतो को नमस्कार, सिद्धों को नमस्कार, आचार्यों को नमस्कार, उपाध्यायों को नमस्कार, सर्व साधुओं को नमस्कार। ये पाँच परमेष्ठी हैं।

तीर्थंक र
जब मनुष्य ही उन्नति करके परमात्मा बन जाए तो वह तीर्थंकर कहलाता है।दूसरे पक्ष से देखें तो 'तीर्थ' कहते हैं घाट को, किनारे को, तो धर्म-तीर्थ का प्रवर्तन करने वाले 'तीर्थंकर' कहे जाते हैं। जबकि अवतार तो परमात्मा के, ईश्वर के प्रतिरूप माने जाते हैं, जो समय-समय पर अनेक रूपों में जन्म लेते हैं।

जैन धर्म के अनुसार 24 तीर्थंकर हो गए हैं। पहले तीर्थंकर ऋषभनाथजी हैं तो चौबीसवें महावीर स्वामी। ऋषभनाथ को 'आदिनाथ', पुष्पदन्त को 'सुविधिनाथ' और महावीर को 'वर्द्धमान, 'वीर', 'अतिवीर' और 'सन्मति' भी कहा जाता है।

आम्ना य
जैन धर्म मानने वालों के मुख्य रूप से दो आम्नाय (सम्प्रदाय) हैं- दिगम्बर और श्वेताम्बर।

दिगम्बर सम्प्रदाय के मुनि वस्त्र नहीं पहनते। 'दिग्‌' माने दिशा। दिशा ही अम्बर है, जिसका वह 'दिगम्बर'। वेदों में भी इन्हें 'वातरशना' कहा है। जबकि श्वेताम्बर सम्प्रदाय के मुनि सफेद वस्त्र धारण करते हैं। कोई 300 साल पहले श्वेताम्बरों में ही एक शाखा और निकली 'स्थानकवासी'। ये लोग मूर्तियों को नहीं पूजते। जैनियों की तेरहपंथी, बीसपंथी, तारणपंथी, यापनीय आदि कुछ और भी उपशाखाएँ हैं। जैन धर्म की सभी शाखाओं में थोड़ा-बहुत मतभेद होने के बावजूद भगवान महावीर तथा अहिंसा, संयम और अनेकांतवाद में सबका समान विश्वास है।

जैनश्रु त
भगवान महावीर ने सिर्फ उपदेश ही दिए। उन्होंने कोई ग्रंथ नहीं रचा। बाद में उनके गणधरों ने, प्रमुख शिष्यों ने उनके उपदेशों और वचनों का संग्रह कर लिया। इनका मूल साहित्य प्राकृत में है, विशेष रूप से मागधी में।

जैन शासन के सबसे पुराने आगम ग्रंथ 46 माने जाते हैं। इनका वर्गीकरण इस प्रकार किया गया है।

अंगग्रंथ (12)- 1. आचार, 2. सूत्रकृत, 3. स्थान, 4. समवाय 5. भगवती, 6. ज्ञाता धर्मकथा, 7. उपासकदशा, 8. अन्तकृतदशा, 9. अनुत्तर उपपातिकदशा, 10. प्रश्न-व्याकरण, 11. विपाक और 12. दृष्टिवाद। इनमें 11 अंग तो मिलते हैं, बारहवाँ दृष्टिवाद अंग नहीं मिलता।

उपांगग्रंथ (12)- 1. औपपातिक, 2. राजप्रश्नीय, 3. जीवाभिगम, 4. प्रज्ञापना, 5. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति 6. चंद्र प्रज्ञप्ति, 7. सूर्य प्रज्ञप्ति, 8. निरयावली या कल्पिक, 9. कल्पावतसिका, 10. पुष्पिका, 11. पुष्पचूड़ा और 12. वृष्णिदशा।
प्रकीर्णग्रंथ (10)- 1. चतुःशरण, 2. संस्तार, 3. आतुर प्रत्याख्यान, 4. भक्तपरिज्ञा, 5. तण्डुल वैतालिक, 6. चंदाविथ्यय, 7. देवेन्द्रस्तव, 8. गणितविद्या, 9. महाप्रत्याख्यान और 10. वीरस्तव।
छेदग्रंथ (6)- 1. निशीथ, 2. महानिशीथ, 3. व्यवहार, 4. दशशतस्कंध, 5. बृहत्कल्प और 6. पञ्चकल्प।
मूलसूत्र (4)- 1. उत्तराध्ययन, 2. आवश्यक, 3. दशवैकालिक और 4. पिण्डनिर्य्युक्ति।
स्वतंत्र ग्रंथ (2)- 1. अनुयोग द्वार और 2. नन्दी द्वार।

पुरा ण
जैन परम्परा में 63 शलाका-महापुरुष माने गए हैं। पुराणों में इनकी कथाएँ तथा धर्म का वर्णन आदि है। प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश तथा अन्य देशी भाषाओं में अनेक पुराणों की रचना हुई है। दोनों सम्प्रदायों का पुराण-साहित्य विपुल परिमाण में उपलब्ध है। इनमें भारतीय इतिहास की महत्वपूर्ण सामग्री मिलती है।

मुख्य पुराण हैं- जिनसेन का 'आदिपुराण' और जिनसेन (द्वि.) का 'अरिष्टनेमि' (हरिवंश) पुराण, रविषेण का 'पद्मपुराण' और गुणभद्र का 'उत्तरपुराण'। प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं में भी ये पुराण उपलब्ध हैं। भारत की संस्कृति, परम्परा, दार्शनिक विचार, भाषा, शैली आदि की दृष्टि से ये पुराण बहुत महत्वपूर्ण हैं।

दिगम्बर साहित् य
दिगम्बर सम्प्रदाय में षट्खण्डागम को प्राचीन माना जाता है। षट् प्राभृत, अष्ट प्राभृत, मूलाचार, त्रिवर्णाचार, समयसार प्राभृत, प्राभृतसार, प्रवचनसार, नियमसार, पञ्चास्तिकाय, रयणसार, द्वादशानुप्रेक्षा, आप्तमीमांसा, रत्नरकण्डश्रावकाचार, तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक आदि अनेक सिद्धांत ग्रंथों को आदर की दृष्टि से देखा जाता है।

आचार् य
कुन्दकुन्द, कार्तिकेय, उमास्वाति, समन्तभद्र, पूज्यपाद, बट्टकेर, सिद्धसेन दिवाकर, अकलंकदेव, हरिभद्र, अभयदेव, जिनभद्रगणि, विनयविजय, आनंदघन, स्वामी विद्यानन्दि, वीरसेन, जिनसेन, गुणभद्र, अमृतचंद्र, अमितगति, हेमचंद्र, यशोविजय, वसुनन्दि, भीखणजी आदि अनेक आचार्यों ने भी अनेक ग्रंथ लिखे हैं। लगभग दो हजार वर्ष की आचार्य परम्परा में जैन आचार्यों ने विपुल साहित्य का निर्माण किया है।

जैनदर्श न
जैन धर्म में संसार को, जगत्‌ को अनादि अनन्त माना जाता है। जैनी मानते हैं कि इस जगत्‌ को बनाने वाला कोई नहीं है। जैन दर्शन के अनुसार यह जगत्‌ जीव और अजीव, इन दो द्रव्यों के मेल का नाम है। जैन धर्म कहता है कि 'ईश्वर' नाम की ऐसी कोई शक्ति नहीं है, जो सृष्टि का संचालन या संहार कर सके।

अनेकां त
जैन दर्शन का मुख्य आधार है- 'अनेकांत'। 'अनेकांत' यानी एक चीज का अनेक धर्मात्मक होना। भिन्न-भिन्न दृष्टि से जब हम देखते हैं, तो एक ही चीज एक ही नहीं, अनेक धर्मात्मक दिखाई पड़ती है। हर चीज का वर्णन किसी न किसी अपेक्षा से किया जाता है। हर वस्तु को मुख्य और गौण, दो अपेक्षाओं से ग्रहण किया जाता है। एक दृष्टि से एक चीज सत्‌ मानी जा सकती है, दूसरी दृष्टि से असत्‌। अनेकांत में समस्त विरोधों का समन्वय हो जाता है। जो आदमी अनेकांत को मानता है, सत्य को अनेक दृष्टिकोण से देखता है, वह अपने किसी हठ को लेकर नहीं बैठता। किसी बात पर अड़ता या झगड़ता नहीं। समभाव से रहता है।

इसी का नाम 'स्याद्वाद' है। जैनियों के मत से इसका अर्थ है- 'सापेक्षता', 'किसी अपेक्षा से'। अपेक्षा के विचारों से कोई भी चीज सत्‌ भी हो सकती है, असत्‌ भी। इसी को 'सत्तभंगी नय' से समझाया जाता है।

अहिंस ा
प्रत्येक धर्म के दो रूप होते हैं- 1. विचार और 2. आचार। जैन धर्म के विचारों का मूल है, अनेकांत या स्याद्वाद और उसके आचार का मूल है, अहिंसा।

जैन धर्म कहता है- 'अहिंसा के अधिकाधिक पालन से प्राणी मात्र को अधिकाधिक सुख मिलेगा।'

अहिंसा परमो धर्मः। जैन धर्म में अहिंसा का सबसे ऊँचा स्थान है। अहिंसा की अत्यन्त सूक्ष्म व्याख्या और विवेचना की गई है। मनुष्य तो मनुष्य, किसी भी त्रस या स्थावर जीव की हिंसा नहीं करनी चाहिए। हमसे उठते-बैठते, चलते-फिरते, सोते-जागते, खाते-पीते, बोलते-चालते असंख्य जीवों की हिंसा होती रहती है। इस हिंसा से हमें भरसक बचना चाहिए।

मुनियों के लिए अहिंसा की व्याख्या बहुत कड़ी है, गृहस्थों के लिए उससे कुछ हलकी। स्थूल हिंसा तो पाप है ही, पर भाव हिंसा को ही सबसे बड़ा पाप कहा गया है। अहिंसा का एक छोटा सा उदाहरण है, रात्रि में भोजन करने की मनाही। महावीरजी कहते हैं-
सन्ति मे सुहुमा पाणा तसा अदुव थावरा।
जाइं राओ अपासंतो कहमेसणियं चरे ॥

- त्रस अथवा स्थावर प्राणी इतने सूक्ष्म हैं कि रात में आँख से देखे नहीं जा सकते, इसलिए रात्रि-भोजन कैसे किया जाए?

उदउल्लं बीयसंसत्तं पीणा निव्वडिया महिं।
दिया ताइं विवज्जेज्जा राओ तत्थ कहं चरे?

- जमीन पर कहीं पानी पड़ा होता है, कहीं बीज बिखरे होते हैं। दिन में भी बड़ी सावधानी से ही उन्हें किसी तरह बचाया जा सकता है, पर रात्रि में उन्हें कैसे बचा सकते हैं?

तपस्या
जैन धर्म में तपस्या का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। कहा गया है कि अहिंसा, संयम और तपरूप धर्म ही उत्कृष्ट मंगल है। गृहस्थ एक धर्म है- पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत। इन सब में शरीर, वाणी और काया की तपस्या ही तो है।

सदाचा र
तपस्या की मूल भित्ति है- सदाचार। 5 महाव्रत, 5 समिति, 3 गुप्तियों तेरह प्रकार का मुनि चारित्र्य बताया गया है।

व्रत- व्रतों के दो मुख्य रूप हैं- महाव्रत और अणुव्रत।

1. अहिंसा, 2. सत्य, 3. अस्तेय (चोरी न करना), 4. ब्रह्मचर्य और 5. अपरिग्रह ये भी सभी व्रत ही हैं।

समित ि
समिति यानी समतामय आचार, सजग व्यवहार। समितियाँ पाँच हैं। , 3. एषणा, 4. आदान-निक्षेपण और 5. उत्सर्ग।

ईर्या समिति : जीव-जंतु पैर से न कुचलें, इसलिए रात में न चलना, सँभलकर, छोटे-छोटे जीवों को बचाकर चलना।
भाषा समिति : कोमल, मीठे, हितकर, सच्चे, न्याय के अनुकूल वचन बोलना। असत्य, क्रोध, अभिमान, कपट आदि से भरे वचन न बोलना।
एषणा समिति : इस तरह भिक्षा माँगना कि कोई दोष न हो।
आदान-निक्षेपण समिति : ठीक तरह से चीजों को, उपकरणों को उठाना और रखना।
उत्सर्ग समिति : मल-मूत्र, कफ आदि गंदगी को ऐसी जगह छोड़ना कि किसी जीव की विराधना न हो, गंदगी न फैले।

गुप्त ि
गुप्ति यानी गोपन करना, रक्षण करना। मन, वाणी और काया को इस ढंग से रखना कि दोष न होने पाए, पाप न लगने पाए। यह है गुप्ति। इसके तीन प्रकार हैं-मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति।

गुप्ति के अनुसार न मन में हिंसा या कपट आदि के भाव रखें, न क्रोधभरी, अभिमानभरी वाणी बोलें, न असत्य बोलें और न किसी को मारने दौड़ें, न चोरी करें और न कोई पाप करें।

भावना
भावना यानी मन में भाव लाना। भावनाएँ चार हैं।

मैत्री भावना- सब प्राणियों के प्रति मित्रता की, प्रेम की भावना रखना। सबका अपराध क्षमा करना। किसी से वैर न करना।
प्रमोद भावना- अपने से जो बड़ा हो, उन्नत हो, उसके साथ विनय का बर्ताव करना। उसकी सेवा-स्तुति में आनंद मानना।
कारुण्य भावना- दीन-दुःखियों के प्रति करुणा की भावना रखना। उन्हें सुख पहुँचाना।
माध्यस्थ्य भावना- जो बिलकुल विपरीत वृत्तिवाला या विरोधी हो, उसके प्रति क्रोध आदि न कर तटस्थता का भाव बरतना।

रत् न
जैन धर्म में तीन रत्न माने गए हैं- 1. सम्यक्‌ दर्शन, 2. सम्यक्‌ ज्ञान और 3. सम्यक्‌ चारित्र। इसका अर्थ है देख-भालकर चलना। इसके दो प्रकार हैं- एक निश्चय, दूसरा व्यवहार।

निश्चय रत्नत्रय हैं- आत्मरूप की प्रतीति, आत्मरूप का ज्ञान और आत्मरूप में लीन होना।

व्यवहार रत्नत्रय इस प्रकार हैं-
1. सम्यक्‌दर्शन- सम्यक्‌दर्शन का अर्थ है, सच्चा दर्शन। सच्चे सिद्धांत में श्रद्धा रखना। सच्चे देव, शास्त्र, गुण में श्रद्धा अथवा सात तत्त्वों में श्रद्धा।
2. सम्यक्‌ ज्ञान- सम्यक्त्व सहित होने वाला ज्ञान ही सम्यक्‌ ज्ञान है, जिससे वस्तु का सच्चा ज्ञान हो।
3. सम्यक्‌ चारित्र- भला व्यवहार। सम्यक्‌ दर्शन हो, सम्यक्‌ ज्ञान हो, पर चारित्र न हो, तो उसका क्या लाभ? सम्यक्‌ चारित्र ही सबकी आधारशिला है।

जैन धर्म में रत्नत्रय की बड़ी महिमा है। तीनों एक साथ ही होते हैं। तीनों मिलकर ही मोक्ष का मार्ग कहलाते हैं- सम्यक्‌दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः।

सात तत्त् व
जैन धर्म में सात तत्त्व माने गए हैं ।

जीव तत्व- वे, जिनमें चेतना हो। जानने-देखने की शक्ति हो। जैसे- वनस्पति, वायु, जल, अग्नि, पशु, पक्षी, मनुष्य।
अजीव तत्व- जिनमें चेतना न हो, जैसे- लकड़ी, पत्थर।
आस्रव तत्व- बंधन का जो कारण हो। आ+स्रव द आस्रव। आत्मा की ओर कर्मों का बहना। इंद्रिय रूपी द्वार से विषयभोग आत्मा में घुसते हैं और उसे बिगाड़ते हैं। इनमें कषाय मुख्य है। आत्मा को जो कसे, दुःख दे, मलीन करे सो 'कषाय'। ये कषाय चार हैं- 1. क्रोध, 2. मान-अभिमान, 3. माया-कपट और 4. लोभ।
बंध तत्व- जीव के साथ कर्म का बँध जाना। जैसे- दूध और पानी। इसमें दोनों की असली हालत बदल जाती है।
संवर तत्व- आस्रव को रोकना, कर्मों को न आने देना।
निर्जरा तत्व- बँधे हुए कर्मों का जीव से अलग होना। निर्जरा दो तरह की होती है- 1. अविपाक और 2. सविपाक।
मोक्ष तत्व- आत्मा का कर्म बंधनों से छूट जाना। सम्यक्‌ दर्शन, सम्यक्‌ ज्ञान और सम्यक्‌ चारित्र से कर्मों का बंधन शिथिल होकर जीव को छुटकारा मिलता है। आत्मा को परमात्मा का स्वरूप मिलता है।

अन्नदान, जलदान, स्थानदान, शय्यादान, वस्त्रदान, सद्भावदान, सद्वचनदान, सत्कार्यदान और प्रणाम पुण्य हैं।

हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान-चुगली खाना, परपरिवाद- दूसरों की निंदा, रति, अरति- राग, द्वेष, मिथ्यादर्शन और शल्य- मन को छेदने वाली बात कहना आदि सब पाप हैं ।

कर्म सिद्धां त
कर्म वह है, जो आत्मा का असली स्वभाव प्रकट न होने दे। उसे ढँक दे। जैन धर्म में कर्म सिद्धांत पर बहुत जोर दिया गया है। मूल कर्म आठ हैं- ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय। उत्तर प्रकृतियाँ अनेक हैं।

जैन धर्म में ऐसा माना जाता है कि संसार के प्राणी जो दुःख भोग रहे हैं, उसका कारण है उनका अपना-अपना कर्म। इस कर्म बंधन से मुक्त होना ही मोक्ष है। कर्म का जैन सिद्धांत में वह अर्थ नहीं है, जिसे कर्तव्य कर्म कहा जाता है। 'कर्म' नाम के परमाणु होते हैं, जो आत्मा की तरफ निरंतर खिंचते रहते हैं। इन्हें 'कार्मण वर्गणा' कहा जाता है। पुद्गल के सूक्ष्म से सूक्ष्म रूप को 'परमाणु' कहते हैं। मनुष्य की प्रवृत्ति और परिणाम के अनुसार वैसे कर्म परमाणु आत्मा से चिपट जाते हैं और उनमें शक्ति भी आ जाती है। ये कर्म फिर सुख-दुःख देते हैं।

आत्मा को जीत ो
कर्म बंधन से छुटकारा पाने के लिए एक ही उपाय है और वह है- राग-द्वेष से अतीत बनो, वीतराग बनो। अहिंसा और अभय, त्याग और तपस्या, अस्तेय और अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य और सदाचार से ही आत्मा को जीता जा सकता है। विषमता दूर कर समता प्राप्त की जा सकती है, तभी शांति मिलेगी और शांति ही तो है निर्वाण।

' सन्ति निव्वाणमाहियं!'


अन्नदान, जलदान, स्थानदान, शय्यादान, वस्त्रदान, सद्भावदान, सद्वचनदान, सत्कार्यदान और प्रणाम पुण्य हैं।

हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान-चुगली खाना, परपरिवाद- दूसरों की निंदा, रति, अरति- राग, द्वेष, मिथ्यादर्शन और शल्य- मन को छेदने वाली बात कहना आदि सब पाप हैं ।

कर्म सिद्धां त
कर्म वह है, जो आत्मा का असली स्वभाव प्रकट न होने दे। उसे ढँक दे। जैन धर्म में कर्म सिद्धांत पर बहुत जोर दिया गया है। मूल कर्म आठ हैं- ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय। उत्तर प्रकृतियाँ अनेक हैं।

जैन धर्म में ऐसा माना जाता है कि संसार के प्राणी जो दुःख भोग रहे हैं, उसका कारण है उनका अपना-अपना कर्म। इस कर्म बंधन से मुक्त होना ही मोक्ष है। कर्म का जैन सिद्धांत में वह अर्थ नहीं है, जिसे कर्तव्य कर्म कहा जाता है। 'कर्म' नाम के परमाणु होते हैं, जो आत्मा की तरफ निरंतर खिंचते रहते हैं। इन्हें 'कार्मण वर्गणा' कहा जाता है। पुद्गल के सूक्ष्म से सूक्ष्म रूप को 'परमाणु' कहते हैं। मनुष्य की प्रवृत्ति और परिणाम के अनुसार वैसे कर्म परमाणु आत्मा से चिपट जाते हैं और उनमें शक्ति भी आ जाती है। ये कर्म फिर सुख-दुःख देते हैं।

आत्मा को जीत ो
कर्म बंधन से छुटकारा पाने के लिए एक ही उपाय है और वह है- राग-द्वेष से अतीत बनो, वीतराग बनो। अहिंसा और अभय, त्याग और तपस्या, अस्तेय और अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य और सदाचार से ही आत्मा को जीता जा सकता है। विषमता दूर कर समता प्राप्त की जा सकती है, तभी शांति मिलेगी और शांति ही तो है निर्वाण।

' सन्ति निव्वाणमाहियं!'
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