दान-तप के लिए प्रेरित करता पर्व पर्युषण

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दान, शील, तप और त्याग इस देश की विशेषता है। भारत में पर्युषण पर्व ही ऐसा है जो दान, तप के लिए प्रेरित करता है। भगवान महावीर ने भी गुप्त दान को सर्वश्रेष्ठ दान की संज्ञा दी है। दान नाम कमाने के लिए, पुण्य कमाने के लिए हो तो दान नहीं कहलाता है।

उक्त विचार पर्वाधिराज पर्युषण पर्व के अवसर पर आयोजित धर्मसभा में साध्वी महाप्रज्ञाजी ने व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि दान देने वाला व लेने वाला दोनों ही सुपात्र होना चाहिए। ज्ञानियों ने कहा है कि हाथ की शोभा कंगन से नहीं दान से होती है।

उपाध्याय मुलमूनिजी ने कहा कि हमें उत्तम कुल मिला है, वीतराग भगवान का शासन मिला है तो हमें नर से नारायण बनने का प्रयास करना चाहिए। मानव एक आकृति को सुशोभित बनाने वाला गुण है। मानवता अपने जीवन को विकासगामी बनाती है। जिसमें मानवता आ जाती है तो वह चारों तरफ शांति का वातावरण बनाती है।
  दान, शील, तप और त्याग इस देश की विशेषता है। भारत में पर्युषण पर्व ही ऐसा है जो दान, तप के लिए प्रेरित करता है। भगवान महावीर ने भी गुप्त दान को सर्वश्रेष्ठ दान की संज्ञा दी है। दान नाम कमाने के लिए, पुण्य कमाने के लिए हो तो दान नहीं कहलाता है।      


मुनिश्री ने कहा कि अहिंसा, सत्य और तप जिसके पास है, उन्हें देवता भी नमस्कार करते हैं। जो मानव शरीर के बजाय आत्मा का चिंतन करता है उसका जीवन सार्थक है। जैन धर्म में त्याग का सर्वाधिक महत्व बताया गया है। जिसका लक्ष्य ज्ञान, ध्यान एवं संस्कार निर्माण का है, वह अंतःगढ़ सूत्र के माध्यम से महापुरुषों के जीवन वृत्तांत को श्रवण कर, संकल्प को धारण कर, स्वार्थ एवं अहम का विसर्जन कर, अंतर आत्मा को जागृत कर सकते हैं। श्रावक के कर्तव्यों में साधार्मिक भक्ति भी एक प्रमुख कर्तव्य है।

इस अवसर पर साध्वी सूर्यकांताजी ने कहा कि पौषध व्रत की महिमा की परमात्मा ने स्वयंमुख से प्रशंसा की थी। पौषध व्रत लेने वाली भव्य आत्मा को एक दिन के लिए भी साधु के समान माना जाता है। अज्ञान दूर करने का सशक्त माध्यम स्वाध्याय है। स्वाध्याय दृष्टि परिमार्जन का साधन है, स्वाध्याय द्वारा ज्ञानार्जन कर क्षीर नीर भेद करने की क्षमता का विकास करते हुए साहित्य के अध्ययन से स्वयं एक सुसंस्कृत समाज की रचना का मार्ग प्रशस्त करें। इस अवसर पर पर्युषण पर्व में श्रावक के 11 कर्तव्यों के बारे में बताया भी बताया गया।

उन्होंने कहा कि जीव अनंतकाल से सुख की खोज में रहा है। उसके समस्त प्रयत्न सुख प्राप्ति के लिए हो रहे हैं। फिर भी जीव सुखी नहीं हो पाया। सुख का सच्चा मार्ग भौतिक सुख का त्याग करना ही है।

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