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नेम राजुल का पवित्र प्रेम

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- मुनि ऋषभचन्द्र विजय 'विद्यार्थी'

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क ल हमने कल्पसूत्रजी के प्रवचन में चरम तीर्थंकर महावीर स्वामी का जीवन दर्शन सुना, आज के शेष कल्पसूत्रजी में परमात्मा पार्श्वनाथजी एवं नेमिनाथजी तथा प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ प्रभु के जीवन दर्शन को सुनेंगे। परमात्मा पार्श्वनाथ प्रभु का जन्म वाराणसी नगरी में अश्वसेन राजा वामादेवी माता की कुक्षी से हुआ। सभी तीर्थंकरों की माताएँ चौदह स्वप्न देखती हैं।

वामादेवी को गर्भकाल के दौरान पास में सर्प घूमता हुआ दिखता था अतः पुत्र जन्मोत्सव के बाद माता-पिता ने पार्श्वकुमार नाम रखा। पार्श्वनाथ परमात्मा को दशावतारी कहा गया है। दश जन्मों पूर्व तीर्थंकर गौत्र कर्म का उपार्जन मरुभूति के भव में हुआ। कमठ और मरुभूति पुरोहित पुत्र सगे भाई थे। मरुभूति छोटा एवं कमठ बड़ा था। पिता मंत्री पद पर थे। कमठ उद्दंड स्वभाव था एवं मरुभूति छोटा होने के बाद भी पढ़ा-लिखा, विद्वान और जनप्रिय समझदार था।

अतः पिता की मृत्यु पश्चात राजा ने छोटे बेटे मरुभूति को उत्तराधिकारी मंत्री बनाया। ईर्ष्या से कमठ अपने आपको अपमानित महसूस करने लगा। एकदा मरुभूति राजाज्ञा से अन्यत्र शत्रु राजाओं से लड़ाई हेतु गया। उसकी अनुपस्थिति में उद्दंडी विलासी स्वभाव के कमठ ने छोटे भाई की पत्नी के साथ अनैतिक दुर्व्यवहार किया। राजा को इस बात का पता चला तो मरुभूति के आगमन पूर्व ही कमठ को देश निकाला दे दिया। अपमानित कमठ जंगलों में गिरि-गुफाओं में तापस बनकर कठोर तप करने लगा।

एकदा कमठ भ्रमण करता हुआ अपने गृहनगर बाहर आया। मरुभूति सरल स्वभाव का था। सबकुछ जानते हुए भी अपने बड़े भाई के प्रति अगाध प्रेम रखने वाला था। उसने आगमन और दशा देखकर सोचा- मेरे बड़े भाई को मेरे कारण कष्ट सहना पड़ रहा है, अतः जाकर क्षमा माँगूं। यह विचार कर फल-फूल इत्यादि लेकर नगर बाहर गिरि-गुफा में बड़ा भाई के दर्शनार्थ पहुँचा, विनम्र भाव से क्षमा माँगते हुए बड़े भाई के चरणों में गिर पड़ा। क्रोध से भरे दुष्ट बुद्धि कमठ ने पाषाण शिला उठाकर नतमस्तक मरुभूति के सिर पर डाल दी। सिर फट जाने से मरुभूति की मृत्यु हो जाती है। यहीं से दोनों जीवों में वैर परंपरा चली।

भगवान पार्श्वकुमार का जन्मोत्सव सिद्धार्थ राजा व इंद्रों द्वारा कृतोत्सव की तरह ही पिता अश्वसेन द्वारा मनाया गया। कमठ का जीव यहाँ भी तापस बन नगर में कठोर तप कर रहा था। पार्श्वकुमार नगर भ्रमण करते हुए पंचाग्नि तप कर रहे कमठ के समीप पहुँचे। अवधिज्ञान से अग्निकाष्ठ में छुपे नाग-नागिन के जोड़े को जलते देखा। कमठ को ऐसे अज्ञान तप के लिए निषेध शिक्षा देते हुए सेवक द्वारा जलते हुए काष्ठ से नाग-नागिन के जोड़े को निकलवाया। अर्धदग्ध नागिन को परमात्मा पार्श्वनाथ ने करुणा भाव से नवकार मंत्र सुनाया।

मंत्र प्रभाव से नागयुगल पाताल लोक में नागेन्द्र धरणेन्द्र पद्मावती रूप में उत्पन्न हुए। पौष वदी 10 को जन्मे पार्श्वनाथ प्रभु ने पौष वदी 11 के दिन दीक्षा ग्रहण कर जगत्‌ के कल्याण के लिए तपश्चर्या प्रारंभ की। तपः जीवन में भी कमठ तापस के जीव ने मरकर यक्ष बने मेघमाली ने घनघोर वर्षा कर पार्श्वनाथ परमात्मा की तपस्या भंग करने की कोशिश की, नासिकाग्र तक पानी का छोर पहुँचा। धरणेन्द्र पद्मावती ने अपने उपकारी भगवंत को ज्ञान से कष्टयुक्त देखकर तपस्थल पर आकर नागरूप सात फणा कर वर्षा से रक्षा की।

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पद्मावती देवी ने पाताल लोक से उठते हुए दोनों हाथों को चरणों के नीचे रखकर जल में से ऊपर उठाया। इस प्रकार उपसर्ग हर धरणेन्द्र पद्मावतिताय पूजिताय पार्श्वनाथाय नमः मंत्र का सूत्रपात हुआ। पार्श्वनाथ परमात्मा कैवल्यज्ञान को प्राप्त कर तैंतीस करोड़ मुनिवरों के साथ सम्मेतशिखर तीर्थ पर निर्वाण पद को प्राप्त हुए।

कल्पसूत्रजी में 22वें तीर्थंकर यदुवंशी नेमिनाथ तीर्थंकर का जीविन चरित्र है- शौरीपुर के समुद्र विजय राजा के वहां माता शिवादेवी की कुक्षी से श्रावण सुदी 5 को जन्म हुआ। माता ने 14 स्वप्न देखे, इंद्रकृत जन्मोत्सव पूर्ववत हुआ। श्रीकृष्णजी के पिता वासुदेवजी एवं समुद्र विजय राजा दोनों सगे भाई होने नेमिनाथजी एवं श्रीकृष्णजी चचेरे भाई थे। भगवान नेमिनाथजी का विवाह उग्रसेन राजा की पुत्री राजुल देवी के साथ होने वाला था, परंतु विवाह भोज में एकत्र पशु हिंसा की जानकारी होने पर पशुओं को बंधनमुक्त कराकर रैवतगिरी (गिरनार तीर्थ) पर दीक्षा ग्रहण कर ली।

नव-नव भवों में नेम राजुल की प्रेम कहानी दाम्पत्य जीवन जीती रही। राजुल का परित्याग कर जाने लगे तो राजकुमारी राजुल ने भी पीछे-पीछे गिरनार जाकर दीक्षा ग्रहण कर आत्म साधना कर मोक्ष प्राप्त किया। भगवान नेमिनाथ ने सहसावन से कैवल्यता प्राप्त कर धर्मसंघ की स्थापना कर रैवतगिरि तीर्थ पर मोक्ष प्राप्त किया। नेम राजुल के नव-नव भवों का निर्दोष दाम्पत्य जीवन पवित्र प्रेम की कहानी कहता है। आज के युग में पति-पत्नी के संबंधों में आवेगजन्य निर्वाह अक्षमता सुखद दाम्पत्य को कठिन दुःखमय बनाती है, वहीं नेम राजुल का पवित्र प्रेम मोक्ष सुख में भी एक-दूसरे को बाधक नहीं बनते हुए सुखद सहायक बना!

कल्पसूत्रजी के अंतिम चरण में प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथजी का जीवन चरित्र है। अयोध्या नगरी में नाभीकुलकर राजा के घर मरुदेवी माता की कुक्षी से जन्म लिया। माता ने 14 स्वप्न देखे। तीर्थंकर परंपरानुसार इंद्र महोत्सव हुआ। जगत को रीति-नीति की हित शिक्षा दी। 100 पुत्रों में भरत चक्रवर्ती हुए जिनके नाम से भारत देश है। ब्राह्मी-सुंदरी दो पुत्रियाँ थीं। युगलिक युग के अंत में समाज व्यवस्था की स्थापना की।

स्त्रियों की 64 कला एवं पुरुषों की 72 कला का निरूपण किया। परमात्मा ऋषभदेव आदिनाथ दोनों एक नाम हैं- दीक्षा ग्रहण कर इस युग की दीर्घ तपस्या की, 12 माह का वर्षी तप हुआ, पारणा श्रेयांसकुमार ने कराया। सिद्धाचल तीर्थ की यात्रा कर तीर्थ के शाश्वत स्वरूप को मान्यता प्रदान की, मरुदेवी माता ने पुत्र मोह में आंसू बहाते-बहाते निर्मोह अनित्य भावना से समवशरण के बाहर ही हाथी पर बैठे-बैठे कैवल्यता प्राप्त की। इस प्रकार एक स्त्री ने युग के प्रारंभ में मोक्ष मार्ग का शुभारंभ किया। परमात्मा कैवल्यता प्राप्त कर धर्मसंघ की स्थापना कर धर्म प्रवर्तन करते हुए अष्टापद गिरि पर निर्वाण को प्राप्त हुए।
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