बावनगजा तीर्थक्षेत्र गोपाचल

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सृष्टि के निर्माता आदि पुरुष भगवान ऋषभदेव के व्यक्तित्व की छाप जनमानस के हृदय में गहरी रही है। उन्होंने प्राणी मात्र के कल्याण और उपकार के लिए जो कुछ किया, उसको बड़ी श्रद्धा एवं विनय भाव से स्वीकार किया।

यही नहीं, उनके पश्चातवर्ती तेईस तीर्थंकारों ने भी भगवान ऋषभदेव द्वारा बताए हुए मार्ग का अनुसरण किया एवं प्रजाजन एवं भक्तजन उनकी भक्तिभाव से पूजा करने के लिए उनका सान्निध्य पाने के लिए लालायित रहते थे। उनके चरणों में अपने को समर्पित करने के लिए व्याकुल हो उठते थे। इसी तीव्र अनुभूति ने पूजा पद्धति को जन्म दिया।

पूजा वह समर्पण भाव है, जो महान व्यक्तित्व के प्रति होता है। तत्कालीन अवस्था में प्रत्यक्षता संभव थी, परन्तु निर्वाण के पश्चात व्याकुल मन के भटकाव ने मूर्ति पूजा को जन्म दिया।

मूर्ति पूजा हेतु मूर्तियों का निर्माण कार्य प्रारंभ हुआ। देव मूर्तियों का निर्माण जैनों से ही प्रारंभ होता है। तत्पश्चात उनका अनुसरण अन्य मतावलंबियों ने किया।

विशाल मूर्ति का निर्माण- श्रवणवेलगोल में गोम्मटेश्वर द्वार के बाईं ओर एक पाषाण पर शक सं. 1102 का एक लेख कानड़ी भाषा में है। इसके अनुसार ऋषभ के दो पुत्र भरत और बाहुबलि थे। बाहुबलि ने युद्ध में भरत को परास्त कर दिया, परन्तु संसार से विरक्त होकर बाहुबलि ने जिन दीक्षा ले ली। घोर तपश्चरण के पश्चात केवल ज्ञान प्राप्त किया। भरत ने पोदनपुर में 525 धनुष की बाहुबलि की मूर्ति प्रतिष्ठित की। यह प्रथम सबसे विशाल प्रतिमा का उल्लेख है।

कुछ समय व्यतीत होने पर मूर्ति के आसपास की भूमि कुक्कुट सर्पों से व्याप्त हो गई एवं वहाँ सघन वन हो गया। वन लताओं से आच्छादित एवं वन वृक्षों से ढँक जाने के कारण मूर्ति दर्शन दुर्गम्य हो गया।

चामुण्डराय ने माता की दर्शन की उत्कृष्ट अभिलाषा पूर्ति हेतु वैसी ही मूर्ति प्रतिष्ठा करने का विचार कर लिया। सन्‌ 981 ई. में मैसूर राज्य में बाहुबलि की मूर्ति का निर्माण कराया। यह मूर्ति 57 फुट ऊँचाई की है और इसकी गणना विशाल मूर्तियों में की जाती है।

जैन परम्परा में विशालता का मापदंड बावनगजा है। भारत वर्ष में बावनगजा नाम से प्रख्यात तीन मूर्तियाँ हैं- 1. सन्‌ 981 ई. चामुण्डराय द्वारा प्रतिष्ठापित श्रवण वेलगोल में गोम्मटेश (बाहुबलि) की खङ्गासन प्रतिमा, 2. सन्‌ 1166 से 1288 के बीच अर्ककीर्ति द्वारा प्रतिष्ठापित सतपुड़ा की चोटियों से घिरी हुई चूलगिरि (बड़वानी) में आदिनाथ की खड़्‌गासन प्रतिमा, 3. गोपगिरि (ग्वालियर) में पंद्रहवीं शताब्दी की तोमरवंशी राजाओं के काल में प्रतिष्ठित आदिनाथ की खड़्‌गासन प्रतिमा।

अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर होने के कारण भारतवर्ष में सबसे विशाल प्रतिमा ऋषभदेव की है। उपरोक्त वर्णित दो प्रतिमाएँ विंध्यगिरि पर्वत श्रेणी में है। आदिनाथ की चूलगिरि (बड़वानी की प्रतिमा) मालव देश में और गोपगिरि (ग्वालियर) की आदिनाथ की प्रतिमा ग्वालियर में है। एक नर्मदा नदी के किनारे तो दूसरी स्वर्ण रेखा नदी के किनारे है। दोनों ही सिद्ध क्षेत्र हैं। चूलगिरि से इंद्रजीत और कुंभकर्ण मुक्त हुए तथा गोपाचल से सुप्रतिष्ठित केवली मोक्ष गए हैं।

बावनगजा तीर्थ- भगवान आदिनाथ की विशाल प्रतिमा के कारण ही यह गोपाचल पंद्रहवीं शताब्दी बावनगजा तीर्थ क्षेत्र से प्रसिद्ध हुआ।

1. तीर्थमाल-
सुबंदों पालि शांति जिनराय, सुपूज्यपाद कियो नयन विराज ।
सुअलवर रावण पास जिनेन्द्र, सुबावनगज गोपाचल चंद्र ॥

2. सर्वतीर्थ वंदना-

गोपाचल जिनथान बावनगज महिमा वर ।
भविक जीव आधार जन्म कोटिक पातक हर ॥

जे सुमिरे दिन-रात तास पातक सवि नाशे ।
विघन सदा विघटंत सुख आवे सवि पाशे ॥

बावनगज महिमा घणी सुरनरवर पूजा करे ।
ब्रह्मज्ञान सागर वदति जे दीठे पातक हरे ॥

3. तीर्थ जयमाला-

सुग्वालियर गढ़ बन्दों जिनराज ।
सुबावनगज पुरी सुखकाज ॥

ग्वालियर की यह प्रतिमा 57 फुट ऊँची है। इसके पैरों की लंबाई साढ़े छह फुट है। जिसके 9 गुना शरीर की अवगाहना है। इस विशाल प्रतिमा के निर्माण में महाकवि रइधू (वि.सं. 1440-1536) के प्रभावशाली व्यक्तित्व, कमलसिंह संघवी की दानवीरता एवं धर्मप्रियता तथा तोमरवंशी राजा डूँगरसिंह की जैन धर्म के प्रति उदारता का योगदान है।

कहा जाता है कि अपभ्रंश भाषा के महाकवि रइधू की साहित्य सौरभता जब फैली तो राजा डूंगरसिंह ने कविवर से कहा कि हे कवि श्रेष्ठ, तुम अपनी साहित्य साधना हमारे पास दुर्ग में ही रहकर करो, जिसे रइधू ने स्वीकार कर लिया।

रइधू भगवान आदिनाथ का भक्त था। किले में भगवान आदिनाथ के दर्शन न होने से उसका चित्त उदास रहता था। उसने अपनी भावना अपने मित्र सहयोगी एवं श्रेष्ठी सिंघवी कमलसिंह से प्रकट की। कमलसिंह सिंघवी ने आनंद विभोर होकर गोपाचल दुर्ग में गोम्मटेश्वर के समान आदिनाथ की विशाल खड़्‌गासन मूर्ति के निर्माण की भावना लेकर वह मंत्री कमलसिंह राजा डूंगरसिंह के राजदरबार में गया और शिष्टाचारपूर्वक प्रार्थना की-

हे राजन्‌, मैंने कुछ विशेष धर्मकार्य करने का विचार किया है, किन्तु उसे कर नहीं पा रहा हूँ। अतः प्रतिदिन मैं यही सोचता रहता हूँ कि अब वह आपकी कृपापूर्ण सहायता एवं आदेश से ही संपूर्ण करूँ क्योंकि आपका यशएवं कीर्ति अखंड एवं अनन्त है। मैं तो पृथ्वी पर एक दरिद्र एवं असमर्थ के समान हूँ। इस मनुष्य पर्याय में मैं कर ही क्या सका हूँ।

राजा डूंगरसिंह कमलसिंह को जो आश्वासन देता है, वह निश्चय ही भारतीय इतिहास का एक स्वर्णिम संदर्भ है। उससे डूंगरसिंह के इतिहास प्रेम के साथ-साथ उसकी धर्म निरपेक्षता, समरसता, कलाप्रियता तथा अपने राजकर्मियों की भावनाओं के प्रति अनन्य स्नेह एवं ममता की झाँकी स्पष्ट दिखाई देती है। वह कहता है-

हे सज्जनोत्तम, जो भी पुण्यकार्य तुम्हें रुचिकर लगे, उसे अवश्य ही पूरा करो। हे महाजन! यदि धर्म-सहायक और भी कोई कार्य हों, तो उन्हें भी पूरा करो। अपने मन में किसी भी प्रकार की शंका मत करो। धर्म के निमित्त तुम संतुष्ट रहो।

जिस प्रकार राजा बीसलदेव के राज्य सौराष्ट्र (सोरट्ठ देश) में धर्म साधना निर्विन्घ रूप से प्रतिष्ठित थी, वस्तुपाल-तेजपाल ने हाथी दाँतों से प्रवर तीर्थराज का निर्माण कराया था, जिस प्रकार पेरोजसाह (फिरोजशाह) की महान कृपा से योगिनीपुर (दिल्ली) में निवास करते हुए सारंग साहू ने अत्यंत अनुरागपूर्वक धर्मयात्रा करके ख्याति अर्जित की थी, उसी प्रकार हे गुणाकर, धर्मकार्यों के लिए मुझसे पर्याप्त द्रव्य ले लो और जो भी कार्य करना हो उसे निश्चय ही पूरा कर लो।

यदि द्रव्य में कुछ कमी आ जाए तो मैं उसे भी अपनी ओर से पूर्ण कर दूँगा। जो-जो भी माँगोगे, वही-वही (मुँह माँगा) दूँगा। राजा ने बार-बार आश्वासन देते हुए कमलसिंह को पान का बीड़ा देकर सम्मानित किया। राजा का आश्वासन एवं सम्मान प्राप्त कर कमलसिंह अत्यंत गद्गद् हो उठा तथा वह राजा से इतना ही कह सका कि हे स्वामिन, आज आपका यह दास धन्य हो गया।

कमलसिंह ने गोपाचल दुर्ग पर उरवाही द्वार के पास 57 फुट ऊँची आदिनाथ की मूर्ति का निर्माण कराया। उसकी प्रतिष्ठा का कार्य रइधू ने किया। मूर्ति का अस्पष्ट लेख इस प्रकार है-

श्री आदिनाथाय नमः। संवत 1497 वर्ष वैशाख... 7 शुक्रे, पुनर्वसु नक्षत्र गोपाचल दुर्ग महाराजधिराज राजा श्री डूंग... सवर्त्तमानो श्री कांची संघे मथुरान्वयो पुष्करगण भट्टारक श्री गणकीर्ति देव तत्पदे यत्यः कीर्तिदेवा प्रतिष्ठाचार्य श्री पंडितरधूतेषां आम्नाये अग्रोतवंशेमोद्गलगोत्रा साधुरात्मा तस्य पुत्र साधु भोपातस्य भार्या नान्ही। पुत्र प्रथम साधु क्षेमसी द्वितीय साधु महाराजा तृतीय असराज चतुर्थ धनपाल पंचम साधु पाल्का। साधु क्षेमसी भार्या नोरादेवी पुत्र ज्येष्ठ पुत्र भधायिपति कौल भार्या च ज्येष्ठ श्री सरसुती पुत्र मल्लिदास द्वितीय भार्या साध्वीसरा पुत्र चन्द्रपाल। क्षेमसी पुत्र द्वितीय साधु श्री भोजराजा भार्या देवस्य पुत्र पूर्णपाल। एतेषां मध्ये श्री ॥ त्यादि जिन संघाधिपति काला सदा प्रणमति ।

रइधू ने अपनी एक प्रशस्ति में उक्त आदिनाथ की मूर्ति के निर्माण की चर्चा इस प्रकार की है-

आदीश्वरादिः प्रतिमा विशुद्धः संकारयित्वा निज चित्त शक्तया ।
नित्य प्रतिष्ठा सम्‌र्धते यत नन्दतात्सो कमलामियो हि ॥
भगवान आदिनाथ की यह उत्तुंग प्रतिमा ग्वालियर में है, वह किले की वर्गीकरण मूर्तियों में उरवाही दरवाजे की जैन मूर्तियों में आती है। इसका विवरण इस प्रकार है-

उरवाही घाटी की दक्षिणी ओर प्रमुख 22 दिगम्बर जैन मूर्तियाँ हैं। उनके ऊपर जो मूर्ति लेख अंकित हैं, उनमें 6 लेख पठनीय है और वे वि.सं. 1497 से 1510 के मध्यवर्ती तोमर राजाओं के राज्यकाल के हैं। इन मूर्तियों में से क्रम संख्या 17-20 एवं 22 मुख्य हैं। क्रम संख्या 17 में आदिनाथभगवान की मूर्ति है, जिस पर वृषभ का चिन्ह स्पष्ट है। इस पर एक विस्तृत लेख भी अंकित है।

सबसे उत्तुंग मूर्ति संख्या 20 की भगवान आदिनाथ की है, जिसका विवरण ऊपर दिया गया है। इस मूर्ति के सम्मुख एक स्तंभ है,जिसके चारों ओर मूर्तियाँ हैं। क्रम संख्या 22 में श्री नेमिनाथ की मूर्ति है, जो 30 फुट ऊँची है। इनके अतिरिक्त आसपास और भी कई मूर्तियाँ हैं। यहाँ पर फाटक से अंदर जाते ही दाहिनी तरफ तीसरी-चौथी शताब्दी की मूर्तियाँ हैं, जिसका रास्ता अगम्य है।
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