महावीर ने 27 साल की उम्र में संन्यास लिया। साढ़े बारह साल तक मौन तपस्या की। तपस्या ने उनके सामने यह सत्य प्रकट किया कि संसार के सभी पदार्थ, वस्तु, द्रव्य या सत, महान हैं। इसलिए उनके साथ चाहे वे जीव हों या अजीव सम्मान से पेश आना चाहिए।
इस अद्भुत अनुभव की असाधारणता इसी बात से समझी जा सकती है कि इसे समझने के लिए राजनीति शास्त्र को सवा दो हजार साल तथा विज्ञान को ढाई हजार साल और इंतजार करना पड़ा। राजनीति शास्त्र ने फ्रांसीसी क्रांति के वक्त सिर्फ मानवीय संदर्भ में और विज्ञान ने आइंसटीन के माध्यम से मूलतः जड़ पदार्थों के संदर्भ में इसे समझा।
महावीर ने इसका संपूर्ण जड़ चेतन के संदर्भ में आत्म साक्षात्कार किया। उन्होंने मानव अथवा प्राणियों के अधिकारों की ही नहीं समस्त जड़ चेतन के अधिकारों की चिंता की। इनमें पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति भी शरीक हैं। महावीर के यहां ये एकेंद्रिय स्थावर जीव हैं।
महावीर को लोकतंत्रात्मक सत्य का साक्षात्कार कराने में उनके पहले के तेईस तीर्थकारों की विरासत और पूर्व जन्मों से अर्जित होते आ रहे महावीरत्व के साथ उनकी जन्मभूमि वैशाली तथा वज्जिसंघ की भूमिका भी कम नहीं है। उन्होंने वैशाली गणराज्य में और एक बड़े दायरे में वज्जिसंघ में गणतंत्र को फलते-फूलते देखा था। इनमें महावीर को लोकतंत्र के उदार और प्रत्यक्ष संस्कार मिले। रामधारी सिंह दिनकर ने वैशाली को प्रजातंत्र की मां कहा है।
वस्तु स्वरूप की जानकारी के बाद महावीर के लिए ज्ञान निःशेष हो गया। वस्तु के स्वरूप को जानकर उन्होंने स्वयं को जान लिया। स्वयं को जान लेना सबको जान लेना है। महावीर इसी अर्थ में सर्वज्ञ हैं।