क्या कहती है श्रीकृष्ण नीति

जन्माष्टमी विशेष

Webdunia
- ज्योत्स्ना भोंडवे
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' इंसान को ऐसा कोई भी काम नहीं करना चाहिए जो उसे ही नष्ट कर दे। उसे अपने स्वप्रयासों से खुद की तरक्की करना है। वह खुद अपना दोस्त भी है और दुश्मन भी।' श्रीकृष्ण ने यह संदेश गीता के छठवें अध्याय के पांचवे श्लोक में दिया है। जो वर्तमान परिप्रेक्ष में बिलकुल सही साबित हो रहा है।

हिन्दुस्तान में मर्यादा पुरुषोत्तम राम और योगेश्वर श्रीकृष्ण दो ही शख्सियतें आदर्श मानी गई हैं। हिन्दुस्तान के तमाम देवी-देवताओं में श्रीकृष्ण सबसे अधिक लोकप्रिय दृष्टा और ऐसे देवता हैं जिनसे लोग बेहद प्यार करते हैं।

जो दुनिया भर में सबसे अधिक स्वीकार्य और आस्था का केंद्र हैं। जिनका पूजन और स्मरण पूरे वर्ष अलहदा राज्यों में, अलहदा विधियों और अलग-अलग संप्रदायों के श्रद्धालुओं द्वारा किया जाता है। ऐसा क्यों? और आज के वक्त में क्यों जरूरी है?

तो इसका जवाब है कि कृष्ण ने जिंदगी के हर मोर्चे पर बगावत की लेकिन इस बगावत के पीछे एक भरापूरा और भरोसेमंद दर्शन रहा। उन्होंने सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक हर नजरिए से अपनी बगावत का परिचय दिया।

हालांकि वे कुदरत के नियम-कायदों का सम्मान करते थे और बड़े बुर्जुगों, दोस्तों की सलाह को भी सुनते थे, लेकिन वे इस बात से भी कतई अनजान नहीं थे कि समाज में फैली गंदगी को सख्ती से साफ करना होगा। कोशिश करनी होगी की यह गंदगी दोबारा न फैलने पाए।

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समय का फेर कुछ ऐसा रहा कि वर्तमान समय में कृष्ण राम की तरह सीधी आसान राह का अनुसरण नहीं कर सकते थे क्योंकि तब वे अपने मकसद में कभी कामयाब नहीं होते जिसके लिए उन्होंने अवतार लिया था।

उन्होंने सिद्ध किया की सच को कायम करने के लिए हमेशा सच्चाई की राह चलना जरूरी नहीं। उसे मजबूती से जड़ें जमाए दुष्टों के खात्मे के लिए बदलना जरूरी होगा।

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राम जो संदेश देना चाहते थे वह अपने निजी आचरण से देते थे, जबकि कृष्ण अलहदा हालात के लिए, अलहदा शख्सियतों के माध्यम से देते थे। और नैतिक ऊहापोह की खातिर उसका व्यावहारिक समाधान भी पेश करते थे।

श्रीकृष्ण ने अपनी पूरी क्षमता से जिंदगी को जिया और सबको सुखी बनाने के लिए अपने तई पूरी कोशिश की। लीलाधर कृष्ण के नाम उनके चरित्र पर कई आरोप चस्पा हुए। लेकिन उन सबके पीछे कोई न कोई गहरा मकसद रहा। जरासंध को पराजित करने के बाद जब उसके बंदी गृह से राजकुमारियों को मुक्त कराया तो उन बेकसूरों के समक्ष सामाजिक बहिष्कार का सबसे बड़ा खतरा रहा।

जिसे कृष्ण ने अपनी समझदार और क्रांतिकारी सोच के चलते अपने नाम के इस्तेमाल का हक देते बेवजह की सामाजिक फजीहत और जिल्लत भरी जिंदगी जीने से बचा लिया।

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हालांकि इससे उन पर 16,001 पटरानियों के सिरमौर होने का आरोप जरूर चस्पा हो गया। यही नहीं पाडंवों के राजसूय यज्ञ में भी कृष्ण ने जूठे पत्तल उठा कर उन्हें धोने की जिम्मेदारी को स्वीकारने से भी गुरेज नहीं किया।

एक कुशल प्रबंधक के किरदार में उन्होंने 'महाभारत' के कई बेहद नाजुक हालात का प्रबंधन भी बेहद कुशलता के साथ किया। उनकी डिप्लोमेसी 'कृष्णनीति' के नाम से मशहूर रही। वे विवादास्पद मुद्दों को अपनी मौलिक सूझबूझ और विचारों से बेहद कुशलता से निपटाते थे।

' कृष्णनीति' सदैव दबे-कुचले वर्ग के हित में रही जिसके लिए वे कभी उच्च वर्ग की स्वार्थपरक मदद पर निर्भर नहीं रहे। धर्म का अर्थ स्वधर्म से होता है यानी इंसान का फर्ज। एक संपूर्ण इंसान अपने फर्ज का निबाह पिता, पति, भाई, दोस्त या अपने पेशे में समझदार पेशेवर के बतौर करता है और ऐसा करते वक्त वह ध्यान रखता है कि उसके दोनों किरदारों में टकराव न हो। यदि हो भी तो लाभ कमजोर पक्ष को ही मिलना चाहिए।

कृष्ण ने ऐसे बुद्धिमत्तापूर्ण हालात पैदा किए जिसने अहंकारी और चालाक शासकों को या तो अपनी कृष्णनीति के सम्मुख समर्पण के लिए मजबूर किया या वे सामाजिक पलायन कर गए।

... और यही वजह है कि हिन्दुस्तान भर में वे हिन्दुओं के महानतम भगवान विष्णु के रूप में भी पूजे जाते हैं। क्योंकि भगवान ब्रह्मा सृष्टी रचियता हैं, तो विष्णु संरक्षक और शिव संहारक हैं।

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