जन्माष्टमी विशेष कविता: बांसुरी

संजय वर्मा 'दृष्ट‍ि'
बांसुरी वादन से, खिल जाते थे कमल 
वृक्षों से आंसू बहने लगते, 
स्वर में स्वर मिलाकर, नाचने लगते थे मोर । 
 
गायें खड़े कर लेतीं थी कान,  
पक्षी हो जाते थे मुग्ध,  
ऐसी होती थी बांसुरी तान... ।
 
नदियां कल-कल स्वरों को, 
बांसुरी के स्वरों में मिलाने को थी उत्सुक 
साथ में बहाकर ले जाती थी, उपहार कमल के पुष्पों के, 
ताकि उनके चरणों में,  
रख सके कुछ पूजा के फूल  ।
 
ऐसा लगने लगता कि, बांसुरी और नदी मिलकर, करती थी कभी पूजा ।
जब बजती थी बांसुरी, घनश्याम पर बरसाने लगते, जल अमृत की फुहारें ।
 
अब समझ में आया, जादुई आकर्षण का राज 
जो  आज भी जीवित है, बांसुरी की मधुर तान में
 
माना हमने भी,  
बांसुरी बजाना पर्यावरण की पूजा करने के समान है, 
जो कि‍ हर जीव में प्राण फूंकने की क्षमता रखती, 
और सुनाई देती है कर्ण प्रिय बांसुरी ।
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