ऐसा माना जाता है कि यह व्रत सिर्फ विवाहिता स्त्रियों के लिए है परंतु अविवाहित कन्याओं द्वारा भी इस व्रत को किए जाने के प्रमाण उपलब्ध हैं। फर्क सिर्फ इतना ही है कि सौभाग्यवती महिलाएं चंद्रदर्शन के पश्चात व्रत तोड़ती हैं और कन्याएं आसमान में पहले तारे के दर्शन के बाद व्रत समाप्त करती हैं। संभव है कि लोकोक्ति 'पहला तारा मैंने देखा, मेरी मर्जी पूरी' इस व्रत के कारण ही शुरू हुई हो।
करवा चौथ व्रत में शिव, पार्वती, कार्तिकेय और चंद्रमा की पूजा की जाती है। इस व्रत के लिए चंद्रोदय के समय चतुर्थी होना जरूरी माना गया है। इस व्रत में करवे का विशेष रूप से प्रयोग होता है। महिलाएं दिनभर निर्जला उपवास रखती हैं और चंद्रोदय के बाद भोजन-जल ग्रहण करती हैं। करवे में पकवान भरे जाते हैं या पताशे रखे जाते हैं और उन्हें दान में दिया जाता है। कई स्थानों पर चावल से बने व्यंजन भी रखे जाते हैं।
इसी दिन कथा सुनी जाती है। दीवारों पर या जमीन पर सूर्य, चंद्र और करवे के चित्र बनाए जाते हैं। करवे को चावल व अलग-अलग रंगों से आवृत्तियां बनाकर सजाया जाता है। करवे की टोंटी में सरकंडे की सीकें लगाई जाती हैं। टोंटीवाले करवे के लोटे का चयन संकल्प व आचमन हेतु जल निकालने के लिए किया जाना, संभव है इस व्रत के पूर्व में ही विद्यमान रहा होगा।