बाल कविता : बचपन

राकेशधर द्विवेदी
याद आता है मुझे


 
याद आता है मुझे
बचपन का गांव
आंगन में दौड़ना
घंटों खेलना
पेड़ों पर चढ़ना
चिड़ियों के साथ चहकना
 
याद आता है दादा-दादी का दुलार
नाना-नानी का प्यार
मां की फटकार
और मास्टर साहब की लताड़
 
याद आता है
गिल्ली और डंडा
खो-खो कबड्डी
सा‍इकिल की दौड़
दिनभर की मौज
 
याद आता है
वो गरमी की छुट्टी
वो ‍रिश्तों का जुड़ना
वो‍ दिलों का मिलना
वो खिलखिलाकर हंसना।
 
धीरे-धीरे बचपन
बदल गया
पुराने सूट की तरह
खूंटों से लटक गया।
 
बचपन दब गया भारी
बस्ते के बोझ से
वह खिसकता रहा
होमवर्क के लाड़ से।
 
कभी वह दिखाई देता
बहुमंजिली इमारत की
बालकनी से लटका हुआ
या फिर प्ले स्टेशन से
चिपका हुआ।
 
चश्मे से झांकता हुआ बचपन
आज आम बात है
क्रच में दम तोड़ता बचपन
इस नए युग की पहचान है।
 
वर्तमान के संवारने के प्रयास ने
बच्चे से बचपना छीन लिया
भौतिकता की इस अंधी दौड़ ने
उसका हंसना छीन लिया।
 
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