करते तो हैं बातें दादा,
अच्छी खासम खास।
लेकिन अम्मा मुझे नहीं है,
बिल्कुल भी विश्वास।
वे कहते हैं दिन-दिन भर वे,
टंगे पेड़ पर रहते थे।
किसी डाल पर बैठ मजे से,
पुस्तक पढ़ते रहते थे।
उनकी बहन वहीं पढ़ती थीं,
बैठी उनके पास।
आम्र वृक्ष की सबसे ऊंची,
वे टुलंग तक चढ़ जाते।
पके आम के कान खींचने,
हाथ लपककर बढ़ जाते।
पलक झपकते बनता उनका,
पका आम वह दास।
एक पेड़ से पेड़ दूसरे,
कूद-फाद करते हर दिन।
इमली आम बरगदों के फल,
तोड़-तोड़ रखते गिन-गिन।
झोली में दिन भर भरते थे,
हंसी, खुशी, उल्लास।
वे कहते हैं, छिवा-छिवौ-अल,
पेड़ों पर खेलें हैं खूब।
उतरे चढ़े धूप के जैसे
डाली पर लूमे हैं खूब।
हर मौसम भरपूर जिया है,
ग्रीष्म, ठण्ड, मधुमास।
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