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बाल कविता : महक परांठे की

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प्रभुदयाल श्रीवास्तव

paratha 
 
सुबह शाम पड़ती है भैया
ठंड कड़ाके की।
और रात की ठंडक तो है,
धूम धड़ाके की।
 
सुबह-सुबह की हालत तो मत,
पूछो रे भैया।
सी-सी करते बदन कांपता,
है मोरी दैया।
राह कठिन सच में होती है,
हाय बुढ़ापे की।
 
मफलर स्वेटर काम न आए,
दांत बजे कट-कट।
अदरक वाली चाय पी रहे,
लोग सभी गट-गट।
कई होटलों में महफ़िल है,
गप्प सड़ाके की।
 
रखी अंगीठी बीच कक्ष में,
घर-भर ने घेरा।
'भूख लगी है'बच्चे सारे,
लगा रहे टेरा। 
उड़ा रहीं अम्मा रसोई से,
महक परांठे की। 
 
(वेबदुनिया पर दिए किसी भी कंटेट के प्रकाशन के लिए लेखक/वेबदुनिया की अनुमति/स्वीकृति आवश्यक है, इसके बिना रचनाओं/लेखों का उपयोग वर्जित है...)

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