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बाल कविता : सूरज अविरल जाग रहा

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प्रभुदयाल श्रीवास्तव

सूरज, सुबह कहां से आते,
बोलो जाते शाम कहां?
दिन में दिखते अंबर में तो,
रात बिताते कहो कहां?
 
क्या जाते सोने बिस्तर में,
नींद तुम्हें क्या आ जाती?
उदयाचल पर सुबह आपकी,
मां तुमको क्यों रख जाती?
 
सूरज बोला प्यारे बच्चों,
कभी नहीं मैं सोता हूं।
दिन में होता अगर यहां,
तो रात कहीं पर होता हूं।
 
धरती अपनी घूम धुरी पर,
मेरे फेरे करती है।
मैं चलता हूं तेज चाल से,
मेरे संग वह चलती है।
 
इसी दौड़ में सम्मुख मेरे,
भाग धरा का जो होता।
मेरी धूप वहां पड़ती तो,
सोने जैसा दिन होता।
 
धरती के पिछले हिस्से में,
धूप जहां न जा पाती।
अंधियारे से घिरी वह मही,
बच्चों रात है कहलाती।
 
जब से मेरा जन्म हुआ है,
तब से ही मैं जाग रहा।
नहीं रुका हूं पल भर को भी,
अब तक अविरल भाग रहा।
 
(वेबदुनिया पर दिए किसी भी कंटेट के प्रकाशन के लिए लेखक/वेबदुनिया की अनुमति/स्वीकृति आवश्यक है, इसके बिना रचनाओं/लेखों का उपयोग वर्जित है...)

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