मम्मी मुझको नहीं खेलने,
देती है अब घर घूला
न ही मुझे बनाने देती,
गोबर मिट्टी का चूल्हा
गपई समुद्दर क्या होता है,
नहीं जानता अब कोई।
गिल्ली डंडे का टुल्ला तो,
बचपन बिल्कुल ही भूला।
हुआ आजकल सावन भादों,
व्यस्त बहुत मोबाइल में,
आम नीम की डालों पर अब,
कहीं नहीं दिखता झूला।
अब्ब्क दब्बक दाएं दीन का,
बिसरा खेल जमाने से
अटकन चटकन दही चटाकन,
लगता है भूला भूला।
न ही झड़ी लगे वर्षा की,
न ही चलती पुरवाई।
मौसम लकवाग्रस्त हो गया,
भू का मुंह रहता फूला।
ऐसी चली हवा पश्चिम की,
हम खुद को ही भूल गए
गुड़िया अब ये नहीं जानती,
क्या होता है रमतूला।
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