एक पेट की और खेत की कविता

सुशील कुमार शर्मा
पेट की कविता में,
कांधे पर बीवी का शव,
रखे दाना मांझी है।
अस्पताल में,
मौत से लड़ता,
आम आदमी है।
 
कूटनीति के गलियारों में,
लटकती गरीब की रोटी है,
सैनिकों की पतली दाल है,
गोदामों में सड़ता अनाज है, 
सड़कों पर फिंकती सब्जियां हैं,
दूध के लिए बिलखता बच्चा है,
सड़कों पर बहता दूध है।
 
खेत की कविता में,
जमीन हड़पते बड़े किसान हैं,
तड़पते भूमिहीन किसान हैं,
साहूकारों के चंगुल हैं,
बैंकों का विकास है, 
कर्जमाफी के लिए चिल्लाते,
अपनी फसलों को जलाते,
जहर खाते-मरते किसान हैं।
 
कविता खेत का दर्द गाती है,
कविता भूखे पेट सुलाती है,
पेट की कविता में,
दर्द है अहसास है,
भूख है भाव है।
 
खेत की कविता में,
किसान है, सूखा है,
कर्ज है, फांसी है,
मंडी हैं, बोलियां हैं,
निर्दोषों पर गोलियां हैं।
 
कविता चाहे खेत की हो,
या पेट की हो,
दोनों में दु:ख है, दर्द है,
आहतभरी गर्द है।

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