बारिश पर मजेदार कविता : बरसात

Webdunia
- जया ठोमरे 'कुमावत'


 
मोर की तरह नाच उठे पेड़ों के पत्ते,
झूमकर जब बरसात हुई।
कई महीनों से जमी धूल और गंदगी,
इसके साथ बही।
 
चमक उठी हर ऊंची इमारत,
महक उठी हर पेड़ की डाली।
नदियों ने करवट ली और,
समंदर में लहर बन गई।
 
और इस बार फिर बरसात,
दुखी होकर अपने घर चली गई।
बोली धो ना सकी मैं वो मैला दिल,
जो खून की नदियां बहाता है।
चमका न सकी मैं उस मन को,
जो हर तरफ गंदगी फैलाता है।
 
रूठी है अब भी धरती मुझसे,
और कहती यही हर बार है।
बहुत है बोझ और गंदगी मुझ पर,
क्यों ना बहा ले गई तुम।
 
सोचा अबकी बरस जो आऊंगी,
तो इतना बरस जाऊंगी।
हर अच्‍छा और हर बुरा,
साथ में अपने ले जाऊंगी।
लूंगी वो विकराल रूप की,
प्रलय मैं बन जाऊंगी।
 
बरसूंगी एक बार इस तरह कि,
सुख-दुख सब ले जाऊंगी।
तेरे दिल का बोझ धरती,
एक दिन मैं कम कर जाऊंगी।
 
सुन ले हर मैले दिल वाले,
खून की नदियां बहाने वाले।
जब मैं अपना रूप दिखाऊंगी,
तुम सबको अपने संग ले जाऊंगी। 
 
ना कोई हथियार होगा, 
ना कोई विस्फोट होगा।
ना ही मैं रुकूंगी,
ना कोई मुझे रोकने वाला होगा।

 
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