डूबे गहन विचार में।
चूहे क्यों न बिकते हैं मां,
मेलों या बाज़ार में।
हम तो घात लगाकर बिल के,
बाहर बैठे रहते हैं।
लेकिन चूहे धता बताकर,
हमें छकाते रहते हैं।
बीत कई रातें जाती हैं,
दिन जाते बेकार में।
अगर हाट में चूहे बिकते
गिनकर कई दर्जन लाते।
अगर तौल में भी मिलते तो,
क्विंटल भर तुलवा लाते।
बेफिक्री से मस्ती करते,
तीजों में, त्योहार में।
जब भी मरजी होती चूहे,
छांट-छांट कर ले आते।
दाम, अधिक मोटे, तगड़ों के,
मुंह मांगे हम दे आते।
दाम न होते अगर गांठ में,
लाते माल उधार में।