बाल साहित्य : अब मत चला कुल्हाड़ी

प्रभुदयाल श्रीवास्तव
अब मत चला कुल्हाड़ी बंदे,
अब मत चला कुल्हाड़ी।
 

 
देख रहा तू इसी कुल्हाड़ी,
ने काटे कई पेड़।
नहीं किसी को छोड़ा बंदे,
बूढ़े युवा अधेड़।
भूखी नदियां, सूखे नाले,
नंगी हुई पहाड़ी बंदे,
अब मत चला कुल्हाड़ी।
 
कहां मकोरे कहां करोंदे,
झरबेरी की बाड़?
लुच, लुच लाल गुमचियां ओझल,
जंगल हुए उजाड़।
घूम रहे जंगल में आरे,
नहीं रुक रही गाड़ी बंदे,
अब मत चला कुल्हाड़ी।
 
बादल फटा जलजले जैसा,
पानी ढेरम ढेर।
एक दिवस में तीस इंच तक,
हुआ गजब अंधेर।
सूखा पसरा, बाढ़ आ गई,
धरती बहुत दहाड़ी बंदे,
अब मत चला कुल्हाड़ी।
 
दो पहिया, मोटर, कारों के,
सड़कों पर अंबार।
आसमान में ईंधन छोड़े,
विष से भरे गुबार।
कान फोड़ते कोलाहल ने,
भू की छाती फाड़ी बंदे,
अब मत चला कुल्हाड़ी।
 
पर्यावरण प्रदूषण की यूं,
होती घर-घर बात।
किंतु समस्या के निदान में,
नहीं किसी का साथ।
बना नहीं कोई भी पाया,
सबने बात बिगाड़ी बंदे,
अब मत चला कुल्हाड़ी।
 
अभी समय है अब भी चेतो,
दुनियाभर के देश।
चीन, अमेरिका ने ओढ़े हैं,
नकली झूठे वेश।
पर्यावरण प्रदूषण के ये,
सबसे बड़े खिलाड़ी बंदे,
अब मत चला कुल्हाड़ी।
 
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